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आषाढ़ का एक दिन’ शीर्षक नाटक ऐतिहासिक होते हुए भी आधुनिक समस्याओं का आंकलन प्रतीत होता है।-व्याख्या कीजिए।

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आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी के प्रयोगधर्मी नाटककार मोहन राकेश द्वारा लिखित है। यह एक यथार्थवादी नाटक है। इसमें ऐतिहासिक परिपार्श्व में आधुनिक जीवन के भाव-बोध को व्यंजित किया गया है। कालिदास की कहानी आधुनिक साहित्यकार से बिल्कुल भी भिन्न प्रतीत नहीं होती।

आलोचक स्वीकार करते हैं कि कालिदास के साथ समकालीन अनुभव के और भी कई संदर्भ इस नाटक में हैं। ये संदर्भ इसे एकाधिक स्तर पर रोचक बनाते हैं। उसका संघर्ष, कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्याश्रय आदि कई स्तरों को स्पर्श करता है। काल के आयाम को बड़ी रोचकता और तीव्रता के साथ नाट्य रूप दिया गया है।

ऊपरी तौर पर इस नाटक में कालिदास की कहानी बताई गई प्रतीत होती है, परंतु वास्तविकता कुछ और है। नाटककार ने इस नाटक में कथा-तंत्र रचते समय ऐतिहासिक वस्तु-योजना को केवल आधार के रूप में रखा है। वास्तव में यहाँ पर कालिदासकालीन परिस्थितियों के माध्यम से आधुनिक समस्याओं का समसामयिक रूप में विवेचन हुआ है। ऐतिहासिक कथानक के आधार पर आधुनिक समस्याओं को प्रस्तुत करना कोई नई बात नहीं है। यही कार्य प्रसाद जी भी अपने नाटकों के द्वारा कर चुके हैं। मोहन राकेश ने भी ‘आषाढ़ का एक दिन’ के द्वारा यही कार्य किया है। प्रसाद जी ने अपने नाटकों की विषय-वस्तु की ऐतिहासिकता पर भी विशेष ध्यान दिया है। परंतु मोहन राकेश ने ऐतिहासिक तथ्यों को महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने केवल पात्र एवं वातावरण ही ऐतिहासिक चुने हैं, शेष सभी कुछ आधुनिक है।

स्थितियाँ प्राचीन हैं परंतु संदर्भ आधुनिक है। कालिदास भले ही मल्लिका से प्रेम करता है परंतु मूलतः वह है एक कवि ही। उसका एकमात्र और चरम मूल्य साहित्य की रचना करना है। पूरे नाटक में उसका यही अंतर्वंद्व दिखाई देता है। यही कारण है कि उज्जयिनी जाकर वह मल्लिका और ग्राम-प्रदेश को भूल जाता है। उज्जयिनी में कालिदास की जीवन-शैली बदल जाती है उसका जीवन उसका अपना जीवन नहीं रहता। प्रियंगुमंजरी से विवाह करने की विवशता, विलासिता में पूरित वैभवपूर्ण जीवन और सृजन शक्ति पर छाए संकट के बादल इसी ओर संकेत करते हैं। स्थिति का ज्ञान होने पर कालिदास स्वयं कहता है-“अधिकार मिला, सम्मान बहुत मिला, जो कुछ मैंने लिखा उसकी प्रतिलिपियाँ देश भर में पहुँच गईं परंतु मैं सुखी नहीं हुआ। किसी और के लिए वही वातावरण और जीवन स्वाभाविक हो सकता था, मेरे लिए नहीं था। एक राज्याधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र से भिन्न था।

मुझे बार-बार अनुभव होता है कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोह से उस क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश किया है और जिस विशाल क्षेत्र में मुझे रहना चाहिए था उससे हट आया हूँ।” राज्याश्रय और राजनीतिक वातावरण में साहित्य-सृजन की गति कुंठित हो जाती है। कालिदास के कथनानुसार-“लोग सोचते हैं, मैंने उस जीवन और वातावरण में रहकर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहाँ रहकर कुछ भी नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है यहाँ के जीवन का ही संचय था।” यह ऐतिहासिक कालिदास की नहीं आधुनिक कालिदास की तस्वीर है। आज महानगरों में उच्च पदों पर आसीन साहित्यकारों की भी यही स्थिति है। वे अपनी आत्मा के सच्चे आज्ञाकारी बनकर उच्च जीवन मूल्यों का जीवन जीते हुए सृजन करना चाहते हैं। परंतु राज्याश्रय का दबाव उन्हें ऐसा करने नहीं देता। वे राजाज्ञा के समक्ष कठपुतली नज़र आते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि नाटककार के नाट्य लेखन का ताना-बाना भले ही इतिहास से लिया हो परंतु उसकी साज-सज्जा और आत्मा अपनी कल्पना से सजाई है। उसमें आधुनिक नर-नारी संबंधों की समस्या भी उतनी ही प्रबल है जितनी राज्याश्रय की। अस्तित्व की रक्षा करने में कालिदास अंततः असमर्थ-सा दिखाई देता है।



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