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Answer» अजित प्रेरक (Acquired Motives) जन्मजात प्रेरकों के अलावा व्यक्ति में उसके समाज तथा पर्यावरण के प्रभाव से भी बहुत से प्रेरक विकसित होते हैं। इस प्रकार के प्रेरकों को जो समाज में रहकर अर्जित किये जाते हैं, अर्जित या सामाजिक प्रेरक कहकर पुकारा जाता है। इन प्रेरकों में मनुष्य के व्यवहार के वे चालक सम्मिलित हैं। जिन्हें वह शिक्षा या वातावरण के सम्पर्क से अपने जीवनकाल में आवश्यकतानुसार अर्जित करता है। अर्जित प्रेरकों का एक नाम गौण आवश्यकताएँ भी है, क्योकि इन्हें व्यक्ति सामाजिक समायोजन के लिए प्राप्त करता है; ये सार्वभौमिक (Universal) नहीं होते। अर्जित प्रेरक मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं – (अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक तथा (ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक। अब हम इनका अलग-अलग संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे – (अ) व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक एन० एल० मस ने व्यक्तिगत अर्जित प्रेरकों को इस प्रकार समझाया है, “व्यक्तिगत प्रेरक वे प्रेरक हैं जो किसी विशेध संस्कृति में स्वयं प्रधान नहीं होते अपितु वे शारीरिक तथा सामान्य सामाजिक प्रेरकों से सम्बन्धित होते हैं। इनके विभिन्न प्रकारों का वर्णन निम्नलिखित है – (1) जीवन लक्ष्य – हर व्यक्ति अपना एक जीवन-लक्ष्य निर्धारित करता है जो उसकी भावनाओं, विचारों, इच्छाओं, योग्यताओं, क्षमताओं तथा प्रेरणाओं पर आधारित होता है। लक्ष्य-निर्धारण के पश्चात् व्यक्ति उसे प्राप्त करने हेतु चेष्टाएँ करता है। व्यक्ति के जीवन की क्रियाएँ तथा व्यवहार इन्हीं जीवन-लक्ष्यों के अनुरूप होते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य डॉक्टर बनना है तो वह ऐसी क्रियाएँ करेगा जो उसे डॉक्टर बनने में सहायता दे सकें। (2) आकांक्षा-स्तर – प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वयं को जीवन के किसी अभीष्ट स्तर तक पहुँचाने की इच्छा होती है, यही आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration) कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षा का स्तर भिन्न-भिन्न होता है। स्पष्ट रूप से यह आकांक्षा का स्तर व्यक्ति के लिए प्रेरक का कार्य करता है। जीवन में प्रगति करने के लिए अथवा महान् कार्य करने के लिए आकांक्षा-स्तर से अत्यधिक प्रेरणा प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ–12वीं की बोर्ड परीक्षा में प्रथम स्थान पाने की आकांक्षा वाला मेधावी विद्यार्थी अपने समस्त प्रयास उस ओर लगा देगा। (3) मद-व्यसन – मद-व्यसन एक प्रबल अर्जित प्रेरक है। बहुत से व्यक्तियों में नशे के सेवन की प्रवृत्ति इतनी बढ़ जाती है कि वे उस विशेष नशे के बिना नहीं रह पाते। यह नशा उनके लिए एक अत्यधिक प्रबल प्रेरक का कार्य करता है, जिसके अभाव में उनका शारीरिक सन्तुलन समाप्त हो जाता है तथा वे अशान्ति एवं तनाव अनुभव करने लगते हैं। उदाहरण के लिए—बीड़ी सिगरेट, तम्बाकू, भाँग, चरस, गाँजा, अफीम, शराब और यहाँ तक कि चाय व कॉफी पीने की आदत डालना मद-व्यसन के अन्तर्गत आते हैं। (4) आदत की विवशता – यदि किसी कार्य को नियमित रूप से बार-बार दोहराया जाए तो वे आदत बन जाते हैं। ये आदतें स्वचालित (Automatic) हो जाती हैं और एक विशिष्ट उत्तेजक आदत की प्रक्रिया को चालित कर देती हैं। उदाहरण के लिए-माना कोई व्यक्ति सुबह 4.30 बजे जागकर चाय पीता है तो इस क्रिया को बार-बार लगातार करने पर यह उसकी आदत बन जाएगी। आदत बन जाने के उपरान्त व्यक्ति उसी के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हो जाता है। (5) रुचि – रुचि अधिक अच्छी लगने की एक प्रवृत्ति है और प्रबल प्रेरक का कार्य करती है। व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण में विविध प्रकार की वस्तुएँ पाता है, किन्तु सम्पर्क में रहकर वह किन्हीं विशेष वस्तुओं को अधिक पसन्द करने लगता है और उन्हें पाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। व्यक्ति की यह पसन्दगी या रुचि उन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि भिन्न हो सकती है जिसमें आयु के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ-एक बच्चा अखबार पाकर ‘बाल-स्तम्भ’ के अन्तर्गत कहानियाँ-कविताएँ आदि पढ़ने में रुचि दिखाता है, जबकि एक प्रौढ़ व्यक्ति देश-विदेश के समाचारों, लेखों या सम्पादकीय पढ़ने में रुचि प्रदर्शित करता है। स्पष्ट है कि रुचि के वशीभूत होकर व्यक्ति सम्बन्धित कार्य करने को बाध्य हो जाता। है। इस रूप को एक व्यक्तिगत अर्जित प्रेरक के रूप में माना जाता है। (6) अचेतन मन – व्यक्ति के व्यवहार को संचालित करने वाले कारकों में अचेतन मन की प्रेरणा भी विशिष्ट स्थान रखती है। व्यक्ति की अनेक कामनाएँ या इच्छाएँ, जिनकी सन्तुष्टि नहीं हो पाती है, अचेतन मन में दब जाती हैं; किन्तु दबकर भी नष्ट नहीं होतीं, अपितु वहीं से अपनी सन्तुष्टि का प्रयास करती हैं। मन के अचेतन स्तर में बैठी हुई बातें व्यक्ति के व्यवहार को अत्यधिक प्रेरित करती हैं। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को नदी में प्रवेश करने से बहुत डर लगता है। पूर्व का इतिहास जानने पर पता लगा है कि वह बचपन में नदी में डूबने से बचा था और नदी से वही डर उसके मन की गहराई में जाकर बैठ गया। (7) मनोवृत्तियाँ – मनोवृत्ति (Attitude) एक आन्तरिक अवस्था है जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने या छोड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह रुचि से भिन्न प्रेरक है। रुचि में हम अपनी पसन्द के कार्यों में संलग्म हो जाते हैं, जबकि मनोवृत्ति हमारे भीतर पसन्द की वस्तुओं की ओर आकर्षण तथा नापसन्द की वस्तुओं की ओर विकर्षण उत्पन्न कर देती है। उदाहरणार्थ-यदि किसी व्यक्ति को शास्त्रीय गायन पसन्द है तो वह उस ओर आकर्षित होकर गायन सुनेगा, अन्यथा नहीं। (8) संवेग – संवेगों को कार्य का प्रेरक माना जाता है। भय, क्रोध, प्रेम, दया, वात्सल्य, घृणा तथा करुणा आदि संवेग के उदाहरण हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति ऐसा व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है। जिसकी वह सामान्यावस्था में कल्पना भी नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ- आत्म-सम्मान पर चोट लगने से क्रुद्ध व्यक्ति अपने प्रियजन पर भी आघात कर सकता है। (ब) सामाजिक अर्जित प्रेरक अर्जित प्रेरकों के एक प्रकार को सामाजिक अर्जित प्रेरक कहते हैं। एक समाज के अधिकांश सदस्यों में ये प्रेरक लगभग समान रूप में पाये जाते हैं, परन्तु ये प्रेरके जन्मजात नहीं होते बल्कि समाज के सम्पर्क एवं प्रभाव के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। मुख्य सामाजिक अर्जित प्रेरकों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है. (1) सामुदायिकता – सामुदायिकता प्रत्येक सामाजिक प्राणी में पाई जाने वाली सार्वभौमिक भावना तथा एक सामाजिक प्रेरक है। यह भावना ही व्यक्ति को सामाजिक कार्यों के लिए प्रेरित करती है और इस भाँति सामाजिक व्यवहार का प्रेरक बनती है। इसी प्रेरणा के कारण व्यक्ति समूह अथवा समुदाय में रहना पसन्द करता है तथा सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है। सामुदायिकता के कारण व्यक्ति अनेक कार्य एवं व्यवहार करने को बाध्य होता है। (2) आत्म-गौरव या आत्म-स्थापन – समाज के सम्पर्क एवं अन्य व्यक्तियों के मध्य रहते हुए व्यक्ति में आदर पाने की भावना विकसित होती है। हर एक व्यक्ति अन्य लोगों की तुलना में अधिक अच्छा, अधिक सफल, उन्नत एवं प्रगतिशील रहना चाहता है। वह अपने लक्ष्य के मार्ग की बाधाओं को जीतकर गौरवान्वित होता है, यही आत्म-गौरव की प्रवृत्ति,है। समाज में कार्य करने वाली यह भावना व्यक्ति को ऐसे अनेक कार्यों की प्रेरणा प्रदान करती है जो उसे समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा दिला सकें। एडलर नामक मनोवैज्ञानिक ने आत्म-स्थापन’ अथवा ‘शक्ति की इच्छा को प्रबल प्रेरक स्वीकार किया है। (3) प्रशंसा तथा निन्दा – प्रशंसा एवं निन्दा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल प्रेरक हैं। प्रशंसा एवं निन्दा व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को पर्याप्त रूप में प्रभावित करते हैं। समाज में व्यक्ति के अच्छे कार्यों की प्रशंसा तथा बुरे कार्यों की निन्दा की जाती है। प्रशंसा प्राप्त करने की लालसा से मनुष्य अच्छे कार्यों को बार-बार दोहराने की प्रेरणा पाता है, जबकि वह निन्दनीय कार्यों को दोहराने का प्रयास नहीं करता। (4) आत्म-समर्पण – आत्म-समर्पण अर्थात् अन्य व्यक्तियों की श्रेष्ठता के सम्मुख स्वयं को हीन बना देने की भावना भी सामाजिक व्यवहार को निर्धारित करने वाला एक मुख्य प्रेरक है। आत्म-समर्पण के प्रेरक हमें ऐसे कार्य करने के लिए बाध्य करते हैं जिनके माध्यम से हम स्वयं को अपने से श्रेष्ठ व्यक्तित्व के सम्मुख अधीन कर देते हैं तथा उनके विचार एवं मत के अनुसार कार्य करते हैं। (5) आक्रामक-प्रवृत्ति – आक्रामक-प्रवृत्ति सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करने वाली एक अर्जित प्रवृत्ति है। यह शारीरिक आवश्यकताओं या कुण्ठाओं की सन्तुष्टि के अवरोध में पैदा होती है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात होता है कि मानव न तो आक्रामक प्रवृत्ति का है और न ही शान्त प्रवृत्ति का। जब तक उसकी शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में अवरोध उत्पन्न नहीं होता वह शान्त दिखाई पड़ता है, किन्तु अवरोध उत्पन्न होते ही वह आक्रामक स्वरूप धारण कर लेता है। उदाहरणार्थ-न्यूगिनी के ‘अरापेश’ जाति के लोग तथा हिमालय की अनेक पहाड़ी जातियाँ एकदम शान्तिप्रिय हैं, जबकि ‘मुण्डुगुमार’ जाति के लोगों को बाल्यावस्था से ही युद्ध प्रिय बनाया जाता है। व्यक्ति के अनेक व्यवहार उसकी आक्रामक प्रवृत्ति के वशीभूत होकर भी सम्पन्न होते हैं। इस रूप में आक्रामक प्रवृत्ति भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक है। (6) आत्म-प्रकाशन – समाज के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसका रहन-सहन दूसरे व्यक्तियों से अच्छा हो और वह अन्य व्यक्तियों से अच्छा व्यक्त करे। जब कभी इसमें रुकावट पैदा होती है। तो वह क्रोधित हो जाता है और झुंझला उठता है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि आत्म-प्रकाशन की इच्छा-प्रभुत्व, नेतृत्व आत्म-प्रदर्शन एवं प्रतिष्ठा की भावना आदि में निहित होती है। (7) अर्जनात्मकता – अर्जनात्मकता अर्थात् किसी वस्तु या वस्तुओं को संचित करने की प्रवृत्ति को भी एक सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। वास्तव में व्यक्ति में यदि किसी वस्तु को संचित या एकत्र करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है, तो वह उसके लिए अधिक प्रयत्नशील हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह सम्बन्धित वस्तुओं को संचित करता जाता है, त्यों-त्यों उसे विशेष सन्तोष की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति अभीष्ट वस्तु को संचित नहीं कर पाता तो वह परेशान हो उठता है तथा अधिक तत्परता से विभिन्न प्रयास करता है। इस रूप में अर्जनात्मकता को प्रबल सामाजिक अर्जित प्रेरक माना गया है। सामान्य रूप से धन सम्बन्धी अर्जनात्मकता प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान होती है।
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