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भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति पर प्रकाश डालिए। यावर्तमान (स्वतन्त्र) भारत में स्त्रियों की स्थिति में हुए परिवर्तन की विवचेना कीजिए।यास्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों ने शिक्षा के क्षेत्र में क्या प्रगति की है? |
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Answer» भारतीय समाज में स्त्रियों की वर्तमान स्थिति स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद पिछले 61 वर्षों में भारतीय स्त्रियों की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। डॉ० श्रीनिवास के अनुसार, “पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता ने स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में पर्याप्त योगदान दिया है। वर्तमान में स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ है। अनेक स्त्रियाँ औद्योगिक संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करने लगी हैं। अब वे आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होती जा रही हैं। उनके पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति में निम्नलिखित क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं 1. स्त्री-शिक्षा में प्रगति – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्री-शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। सन् 1882 में पढ़ी-लिखी स्त्रियों की कुल संख्या मात्र 2,054 थी, जो 1971 ई० में बढ़कर 5 करोड़ 94 लाख तथा 1981 ई० में 7 करोड़ 91.5 लाख से अधिक थी। 2001 ई० में स्त्रियों का साक्षरता प्रतिशत 53.67 तथा 2011 ई० में यह बढ़कर 64.64 हो गया है। स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1964-65 से दसवीं कक्षा तक लड़कियों की शिक्षा नि:शुल्क कर दी है। वर्तमान में शिक्षण से सम्बन्धित ट्रेनिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज आदि में लड़कियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। स्त्री-शिक्षा के व्यापक प्रसार ने स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में समुचित अवसर प्रदान किये हैं, उन्हें रूढ़िवादी विचारों से पर्याप्त सीमा तक मुक्त किया है, पर्दा-प्रथा को कम किया है तथा बाल-विवाह के प्रचलन को घटाने में योगदान दिया है। 2. आर्थिक क्षेत्र में प्रगति – शिक्षा के व्यापक प्रसार, नयी-नयी वस्तुओं के प्रति आकर्षण, उच्च जीवन बिताने की बलवती ईच्छा तथा बढ़ती हुई कीमतों ने अनेक मध्यम व उच्च वर्ग की स्त्रियों को नौकरी यो आर्थिक दृष्टि से कोई-न-कोई काम करने के लिए प्रेरित किया है। अब मध्यम वर्ग की स्त्रियाँ उद्योगों, दफ्तरों, शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों, समाज-कल्याण केन्द्रों एवं व्यापारिक संस्थाओं में काम करने लगी हैं। वर्तमान में भारत में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 35 लाख से भी अधिक है। 1956 ई० के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम ने हिन्दू स्त्रियों को पत्नी, बहन एवं माँ के रूप में पारिवारिक सम्पत्ति में अधिकार प्रदान किया है। सरकार ने स्त्रियों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए कई नयी योजनाएँ भी बनायी हैं। परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है। 3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि – स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहाँ केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा; जब कि 1984 ई० के चुनावों में 65 स्त्रियों ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। इसके बाद के लोकसभा चुनावों में स्त्री सांसदों की संख्या कम ही हुई है, परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना बढ़ी है। ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में स्त्रियों के लिए 33% स्थान आरक्षित किये गये हैं। इसके साथ ही पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में स्त्री-प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमन्त्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि भारत में स्त्रियों में राजनीतिक चेतना दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद स्त्रियों की राजनीतिक चेतना में वृद्धि हुई है और उनकी स्थिति में सुधार हुआ है। 4. सामाजिक जागरूकता में वृद्धि – पिछले कुछ वर्षों में स्त्रियों की सामाजिक जागरूकता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। अब स्त्रियाँ पर्दा-प्रथा को बेकार समझने लगी हैं। बहुत-सी स्त्रियाँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। वर्तमान में कई स्त्रियों के विचारों के दृष्टिकोणों में इतना परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय-विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। अब वे रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक स्त्रियाँ महिला संगठनों और क्लबों की सदस्य हैं तथा समाजकल्याण के कार्यों में लगी हुई हैं। 5. विवाह एवं पारिवारिक क्षेत्र में अधिकारों की प्राप्ति – वर्तमान में स्त्रियों के पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। वर्तमान में स्त्रियाँ संयुक्त परिवार के बन्धनों से मुक्त होकर एकाकी परिवार में रहना चाहती हैं। आज बच्चों की शिक्षा, परिवार के आय के उपयोग, पारिवारिक अनुष्ठानों की व्यवस्था और घर के प्रबन्ध में स्त्रियों की इच्छा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने हिन्दू स्त्रियों को अन्तर्जातीय विवाह करने और कष्टमय वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिए तलाक के अधिकार प्रदान किये हैं। बाल-विवाह दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं और विधवाओं को भी पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त है। स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारतीय स्त्रियों के शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व पारिवारिक जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। भारतीय स्त्रियों में सुधार के कुछ प्रमुख कारक स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को परिवर्तित करने में निम्नलिखित कारकों का योगदान रहा है 1. संयुक्त परिवारों का विघटन – परम्परागत प्राचीन भारतीय संयुक्त परिवारों में स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था, उनका कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीवारी के अन्दर था, किन्तु नगरीकरण के परिणामस्वरूप संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। ग्रामीण परिवार की स्त्रियों के नगरों के सम्पर्क में आने से उनकी स्थिति में काफी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। यह सब नये-नये नगरों के उदय के कारण ही सम्भव हुआ है, क्योंकि रूढ़िवादी व्यक्तियों के बीच में रहकर उनकी स्थिति में सुधार होना सम्भव नहीं था। 2. शिक्षा का विस्तार – वर्ममान में स्त्री-शिक्षा का दिन-प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ रूढ़िवादिता और जातिगत बन्धनों से मुक्त हुई हैं। उनमें त्याग, तर्क और वितर्क के भाव जगे हैं और ज्ञान के द्वार खुले हैं। स्त्रियों के शिक्षित होने से वे अपने आपको आत्मनिर्भर बनाने में सफल सिद्ध हो सकी हैं तथा राजनीतिक जागरूकता भी उनमें आज देखने को मिलती है। 3. अन्तर्जातीय विवाह – वर्तमान में स्कूलों में लड़के-लड़कियों के साथ-साथ पढ़ने तथा दफ्तरों में काम करने से प्रेम-विवाह एवं अन्तर्जातीय विवाह पर्याप्त संख्या में होते दिखाई पड़ रहे हैं। इससे स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हुआ है। अब वे परिवार पर भार नहीं समझी जाती हैं। ऐसे विवाह से बने परिवार में पति-पत्नी में समानता के भाव पाये जाते हैं और स्त्री को पुरुष की दासी नहीं समझा जाता।। 4. औद्योगीकरण – औद्योगीकरण के कारण स्त्रियों की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम हुई है। स्त्रियों ने पुरुषों के समान आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए नौकरी करना आरम्भ किया है। इससे उन्हें आत्म-विकास करने में पर्याप्त सहायता मिली है। 5. सुधार आन्दोलन – 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही कुछ चिन्तनशील व्यक्तियों ने स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के सम्बन्ध में अपना बहुमूल्य योगदान दिया; जैसे – राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि। उन्होंने सती – प्रथा, पर्दा-प्रथा, बहुपत्नी विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध आदि को समाप्त करने के लिए सुधार आन्दोलन किये और इस क्षेत्र में किसी हद तक सफलता भी प्राप्त की। महात्मा गाँधी भी स्त्री-पुरुषों की समानता के समर्थक थे। उन्होंने भी स्त्रियों को राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। 6. सरकारी प्रयास – स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार की तरफ से कई अधिनियम भी पास किये गये, जिससे स्त्रियों की स्थिति में अत्यधिक परिवर्तन हुए। इस सम्बन्ध में ‘बालविवाह निरोधक अधिनियम, 1929’, ‘मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939’, ‘दहेज निरोधक अधिनियम, 1961’, ‘हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955’ तथा ‘विशेष विवाह अधिनियम, 1954’ आदि महत्त्वपूर्ण अधिनियम हैं। |
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