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‘भक्तिन का जीवन संघर्ष एवं कर्मठता का जीवन्त उदाहरण है’ – उसके जीवन के विभिन्न अध्यायों का वर्णन करते हुए इस कथन की पुष्टि कीजिए।

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‘भक्तिन’ शीर्षक रेखाचित्र महादेवी वर्मा का एक संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जिसमें उन्होंने एक दीन दलित महिला के बालपन से लेकर प्रौढ़ा तक के जीवन के संघर्षपूर्ण दु:खांत को प्रस्तुत किया है। भक्तिन का वास्तविक नाम लछमिन था परंतु उसे इस नाम से जुड़े अतीत के संदर्भो, संघर्षों तथा अपमानों से इतनी व्यथा झेलनी पड़ी कि उसे इस नाम से ही घृणा हो गई। वह लेखिका द्वारा दिए गए भक्तिन नाम को पाकर संतुष्ट हो जाती है। भले ही इस नाम में कोई कवित्व नहीं था।

भक्तिन का अतीत वेदना का भंडार रहा है। वह एक गोपाल कन्या थी। उसके पिता अँसी के गाँव के प्रसिद्ध सूरमा थे और वह उनकी इकलौती कन्या थी। इस स्त्री-धन पर पहला प्रहार उसके बाल-विवाह के रूप में सामने आता है। केवल पाँच वर्ष की इस अबोध कन्या का विवाह कर दिया जाता है और उसकी विमाता ने केवल नौ वर्ष की आयु में उसका गौना कर दिया। अत: विमाता के इस निर्णय के रूप में उस पर कष्टों का एक और बाण छोड़ा गया।

भक्तिन ससुराल गई। पिता को प्राणघातक रोग लगा। उसकी मृत्यु तक का समाचार भक्तिन को नहीं दिया जाता- न विमाता की ओर से और न सास की ओर से। सास ने इतनी दया दिखा दी कि उसे मायके जाकर घूम आने का आदेश दे डाला।

लड़के-लड़की में भेद करना हमारे समाज का मध्यकाल से चला आ रहा एक अपमानमूलक व कलंकपूर्ण नियम रहा है। अतः भक्तिन को तीन-तीन कन्याओं को जन्म देने पर घोर उपेक्षा, अपमान और कुपोषण का शिकार होना पड़ता है। पति का देहांत हुआ तो जेठ-जेठानियों के मुँह में पानी आने लगा कि उसकी संपत्ति किस प्रकार हाथ में आए।

भक्तिन पर दुर्भाग्य का आतंक निरंतर बना रहा। समय पाकर उसकी बड़ी पुत्री विधवा हो गई। यहीं पर बस नहीं हुई। विधवा बहन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया। एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर द्वार बंद कर लिया। उसके साथी गाँव वालों को बुलाने चले गए। बेटी ने उस डकैत वर की खूब पिटाई करके जब द्वार खोला तो वहाँ उपस्थित पंचों ने फैसला सुनाया कि वास्तविकता कुछ भी हो, अब उन दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा।

गले पड़ा दामाद निठल्ला था। दिन-भर तीतस्लड़ाता रहता था। लगान चुकाना भारी हो गया। जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिनभर धूप में खड़े रखा। इस अपमान से आहत होकर वह कमाई के विचार से शहर आकर लेखिका की सेविका बन जाती है। महादेवी वर्मा ने इस कटु यथार्थ को अनुभूति की तरलता और गहन संवेदना द्वारा चित्रित किया है कि भारतीय नारी सदा-सदा से दुखों के पहाड़ के नीचे दबती रही है। आज भले ही परिस्थितियाँ बदल रही हों परंतु पुरुषप्रधान समाज में नारी सदैव पिसती तथा पिटती रही है।



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