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डिफ्थीरिया (Liphtheria) नामक रोग के लक्षणों, संक्रमण, उपचार एवं बचाव के उपायों का वर्णन कीजिए।

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डिफ्थीरिया

डिफ्थीरिया भी एक भयंकर रोग है। इस रोग को भी वायु द्वारा संक्रमित होने वाले रोगों की श्रेणी में रखा जाता है। यह रोग प्रायः बच्चों को ही होता है। इस रोग के विषय में विस्तृत जानकारी निम्नलिखित है

कारण:

यह रोग जीवाणु जनित है। कोरीनीबैक्टीरियम डिफ्थीरी नामक जीवाणु इस रोग की उत्पत्ति का कारण है। यह एक भयानक संक्रामक रोग है जोकि प्राय: 2-5 वर्ष की आयु के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग बहुधा शीत ऋतु में होता है। इस रोग का उद्भवन काल प्राय: 2-3 दिन तक होता है।

लक्षण:

इस रोग का प्रारम्भ रोगी की नाक व गले से होता है। इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं
⦁    प्रारम्भ में गले में दर्द होता है और फिर सूजन आ जाती है तथा घाव बन जाते हैं।
⦁    शरीर का तापक्रम 101°-104° फारेनहाइट तक हो जाता है, परन्तु रोग बढ़ने पर यह कम हो जाता है।
⦁    टॉन्सिल व कोमल तालू पर झिल्ली बन जाती  है, जोकि श्वसन-क्रिया में अवरोधक होती है। इसके कारण रोगी दम घुटने का अनुभव करता है।
⦁     रोगी को बोलने तथा खाने-पीने में कठिनाई होती है।
⦁     रोगी के शरीर के अंगों को लकवा मार जाता है।
⦁    जीवाणुओं का अतिक्रमण फेफड़ों तथा हृदय तक होता है, जिससे बहुधा रोगी की मृत्यु हो जाती है

संक्रमण:
इस रोग की संवाहक वायु है। रोगी के बोलने, खाँसने एवं छींकने से जीवाणु वायु में मिलकर अन्य व्यक्तियों तक पहुंचते हैं। रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्त्रों, जूठे बचे पेय एवं खाद्य पदार्थों के
माध्यम से भी यह रोग स्वस्थ व्यक्तियों में संक्रमित हो सकता है।
 
बचाव एवं उपचार:

रोग के लक्षण प्रकट होते ही रोगी को तुरन्त पास के अस्पताल में ले जाना चाहिए। रोग से बचाव के लिए निम्नलिखित उपाय करना सदैव लाभप्रद रहता है
⦁    स्वस्थ व्यक्तियों विशेष रूप से छोटे बच्चों को रोगी से दूर रहना चाहिए।
⦁    रोगी द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं को सावधानीपूर्वक नष्ट कर देना चाहिए।
⦁     रोगी की परिचर्या करने वाले व्यक्ति को तथा घर के अन्य बच्चों को डिफ्थीरियाएण्टीटॉक्सिन इन्जेक्शन लगवाने चाहिए।
⦁    स्वच्छ एवं स्वस्थ रहन-सहन द्वारा रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है; अतः वातावरण की स्वच्छता एवं निद्रा व विश्राम का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
⦁    रोगी को उबालकर ठण्डा किया हुआ जल देना चाहिए।
⦁    नमक मिले जल से नाक, गले व मुंह को साफ करना चाहिए।
⦁    सिरदर्द एवं अधिक तापक्रम होने पर माथे व सिर पर शीतल जल की पट्टी रखना लाभकारी रहता है।
⦁    रोगी को पर्याप्त मात्रा में द्रव (Liquid) पिलाना चाहिए।
⦁    मधु में लहसुन का रस मिलाकरे रोगी के गले पर लेप करना उचित रहता है।
⦁    रोगमुक्त होने के पश्चात् भी रोगी को कम-से-कम दस दिन तक पूर्ण विश्राम करना चाहिए।
⦁    रोगी के प्रभावित अंगों की मालिश करना प्रायः लाभप्रद रहता है।



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