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लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों का विस्तृत वर्णन कीजिए। |
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Answer» लॉर्ड कार्नवालिस के सुधारों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं (i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त (i) भूमि का स्थायी बन्दोबस्त- अब तक कम्पनी वार्षिक ठेके के आधार पर लगान वसूल करती थी। सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को ही जमीन दी जाती थी। इससे कम्पनी और किसान दोनों को ही परेशानी हो रही थी। अतः कार्नवालिस ने 1790 ई० में यह योजना पेश की कि जमींदारों को भू-स्वामी स्वीकर कर निश्चित लगान के बदले निश्चित अविध के लिए उन्हें जमीन दे दी जाए। संचालकों की अनुमति से 1790 ई० में बंगाल के जमीदारों के साथ ‘दससाला’ प्रबन्ध स्थापित किया गया। बाद में 1793 ई० में बंगाल और बिहार में इस व्यवस्था को चिर-स्थायी व्यवस्था या स्थायी बन्दोबस्त के नाम से घोषित किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार, जमींदार भू-स्वामी बन गए। किसानों की स्थिति रैयतमात्र ही रह गई। जमींदारों को निश्चित अवधि के भीतर वसूल किए गए लगान का 10/11 हिस्सा कम्पनी को देना था और 1/11 भाग अपने खर्च के लिए रखना था। लगान की राशि निश्चित कर दी गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत हानि और लाभ दोनों ही विद्यमान थे। लाभ- इस बन्दोबस्त से अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया। इससे दो लाभ हुए-प्रथम, राजनीतिक दृष्टि से अंग्रेजों को भारत में एक ऐसा वर्ग प्राप्त हो गया, जो प्रत्येक स्थिति में अंग्रेजों का साथ देने को तैयार था। द्वितीय, इससे आर्थिक दृष्टि से लाभ हुआ। जमींदारों ने कृषि में स्थायी रुचि लेना आरम्भ किया क्योंकि कृषि के उत्पादन में वृद्धि होने से अधिकांश लाभ उन्हीं का था। सरकार को उन्हें निश्चित लगान देना था, जबकि उत्पादन में वृद्धि होने से वे स्वयं किसानों से अधिक लगान ले सकते थे। इस कारण कृषि की उन्नति से धीरे-धीरे बंगाल और बिहार पुन: धनवान सूबे बन गए। इस व्यवस्था से कम्पनी की आय भी निश्चित हो गई और उसे योजनाएँ लागू करने में आसानी हुई। इस प्रकार अब कम्पनी के कर्मचारियों को लगान की व्यवस्था करने से मुक्ति मिल गई और वे अधिक स्वतन्त्रता से न्याय, शासन और कम्पनी के व्यापार की ओर ध्यान दे सकते थे। हानि- इस बन्दोबस्त में किसानों के हित का कोई ध्यान नहीं रखा गया था। उनका भूमि पर कोई अधिकार न रहा और लगान के विषय में वे पूर्णत: जमींदारों की दया पर छोड़ दिए गए। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बिचौलियों की संख्या में वृद्धि हुई और किसानों का शोषण बढ़ा। इसी कारण इस व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तर पर सामन्तवादी शोषण और निम्न स्तर पर दासता की भावना को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। (ii) न्याय-सम्बन्धी सुधार- न्याय के क्षेत्र में कार्नवालिस ने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए (क) कलेक्टरों को मजिस्ट्रेटों के अधिकार- कार्नवालिस ने 1787 ई० में उन जिलों को छोड़कर, जहाँ पर उच्च न्यायालय स्थापित थे, न्याय के अधिकार पुनः कलेक्टरों को प्रदान कर दिए तथा कुछ फौजदारी मुकदमों का निर्णय करने का अधिकार भी कलेक्टरों को दिया गया। फौजदारी के क्षेत्र में भी कार्नवालिस ने सुधार किए। फौजदारी की मुख्य अदालत मुर्शिदाबाद के स्थान पर पुनः कलकत्ता में स्थापित की गई, जिसके अध्यक्ष गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सदस्य होते थे। (ख) जिला अदालतों का अन्त- कार्नवालिस ने जिले की अदालतों को समाप्त करके कलकत्ता, ढाका, पटना तथा मुर्शिदाबाद में प्रान्तीय अदालतों की स्थापना करवाई। 5,000 रुपए से अधिक मूल्य के मामलों की अपील सपरिषद् सम्राट के यहाँ ही हो सकती थी। (ग) कार्नवालिस कोडा- 1793 ई० में कार्नवालिस कोड के अनुसार जजों की नियुक्ति की गई तथा उन्हें न्याय सम्बन्धी अधिकार प्रदान किए गए। फौजदारी मुकदमों में मुस्लिम कानून प्रयोग में लाया गया। अंग-भंग के स्थान पर कठोर कैद की सजा देने का प्रावधान किया गया। निचली(लोअर)अदालतों की स्थापना-चार जिलों की अदालतों के अतिरिक्त निचली अदालतों की भी स्थापना की गई, जिनके अधिकारी मुंसिफ होते थे। मुंसिफ अदालत को 50 रुपए तक के मुकदमे सुनने का अधिकार था। (ङ) दौरा अदालतों का पुनर्गठन- दौरा करने वाली अदालतों का पुनर्गठन कराया गया तथा उनमें तीन न्यायाधीश नियुक्त किए गए, जो जिलाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनते थे। (च) दरोगाओं की नियुक्ति- देश की शान्ति एवं सुरक्षा के लिए प्रत्येक जिले में कई दरोगाओं की नियुक्ति की गई, जो मजिस्ट्रेट के अधीन होते थे। (iii) व्यापारिक सुधार- कार्नवालिस ने व्यापार के क्षेत्र में निम्नलिखित सुधार किए (क) कार्नवालिस ने कम्पनी की आय बढ़ाने के लिए व्यापार बोर्ड का पुनर्गठन किया। बोर्ड के सदस्यों की संख्या 12 से घटाकर 5 कर दी। (ख) प्रत्येक व्यापारी केन्द्र पर एक-एक रेजीडेण्ट की नियुक्ति की गई, जिसका मुख्य कार्य यह देखना था कि कम्पनी का व्यापार उचित ढंग से हो रहा है या नहीं। ठेकेदारों से माल खरीदने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई तथा रेजीडेण्ट उत्पादकों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर माल खरीदने लगे। (ग) जुलाहों से माल खरीदने के सम्बन्ध में यह नियम बना दिया गया कि कम्पनी जितना माल खरीदना चाहेगी, उसका पूरा मूल्य पेशगी के तौर पर दिया जाएगा तथा जुलाहे उतना ही माल देने हेतु बाध्य होंगे, जितना रुपया उन्होंने पेशगी लिया है। (घ) भारतीय कारीगरों और उत्पादकों की सुरक्षा के लिए भी 1778 ई० में विभिन्न कानून बनाए गए। (iv) शासन-सम्बन्धी सुधार- कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कार्नवालिस ने शासन-सम्बन्धी अनेक सुधार किए— (क) योग्यता के आधार पर नियुक्ति- कम्पनी के कर्मचारी धन कमाने में लगे रहते थे तथा कर्तव्य की उपेक्षा करते थे। इस समय बनारस के रेजीडेण्ट का प्रतिमास वेतन तत्कालीन सिक्के की दर के आधार पर 1,000 रुपए अथवा 1,350 रुपए वार्षिक होता था, जो कि इस पद के अनुरूप काफी अच्छा वेतन था, परन्तु फिर भी लॉर्ड कार्नवालिस के साक्ष्य के आधार पर वह परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से व्यक्तिगत व्यापार तथा भ्रष्टाचार द्वारा एक मोटी धनराशि 40,000 रुपए वार्षिक अपने वेतन के अतिरिक्त कमाता था। कार्नवालिस ने कलेक्टरों तथा जजों के भ्रष्ट होने पर खेद प्रकट किया और इन दोषों को दूर करने के लिए कम्पनी में सिफारिशों के स्थान पर योग्यता के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। (ख) उच्च सरकारी पदों से भारतीय वंचित- कार्नवालिस को भारतीयों पर विश्वास नहीं था तथा उसने 500 पौण्ड वार्षिक से अधिक वेतन वाले पदों पर यूरोपियन्स को रखना आरम्भ किया। इस प्रकार उच्च पदों के द्वार भारतीयों के लिए बन्द कर दिए गए। (ग) वेतन में वृद्धि- रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए उसने कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी, जिससे वे लोग ईमानदारी से कार्य कर सकें। |
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