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लूथरवाद तथा काल्विनवाद का विस्तृत वर्णन कीजिए।याधर्म-सुधार आन्दोलन में लूथर का क्या योगदान था ?यामार्टिन लूथर किंग पर टिप्पणी लिखिए। |
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Answer» लूथरवाद मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 ई० में जर्मनी के आइसलेवन नामक शहर में हुआ था। इसके पिता हेन्स लूथर एक खान में मजदूरी किया करते थे। मार्टिन लूथर की 62 वर्ष की अवस्था में 18 फरवरी, 1546 ई० को आइसलेवन में मृत्यु हो गयी। मार्टिन लुथर ने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया था। उसका विश्वास था कि ईसा मसीह में अटूट विश्वास के द्वारा मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। उसने अनुभव किया कि पूजा, प्रायश्चित्त, बानगी, प्रार्थना, आध्यात्मिक ध्यान और क्षमा-पत्रों (इण्डल्जेन्स) की खरीद से पाप से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। उसने क्षमा-पत्रों की बिक्री के औचित्य को चुनौती दी। उसने तर्क दिया कि क्षमा-पत्र के द्वारा मनुष्य चर्च के लगाये दण्ड से मुक्त हो सकता है, किन्तु मृत्यु के पश्चात् वह ईश्वर के लगाये दण्ड से छुटकारा नहीं पा सकता और ने अपने पाप के फल से बच सकता है। उसके विचारों ने तहलका मचा दिया। उसके समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी। लूथर के विचारों से पोप को घबराहट हुई। पोप ने उसे धर्मच्युत कर दिया। इस समय तक सारे जर्मनी में सामाजिक एवं धार्मिक खलबली पैदा हो चुकी थी। बहुत-से राजा चर्च से नाराज थे। इसलिए वे लूथर का समर्थन करने लगे। लूथर के विचार बहुत सुगम थे। उसने ईसा और बाइबिल की सत्ता स्वीकार की जबकि पोप और चर्च की दिव्यता और निरंकुशता को नकार दिया। उसने बताया कि चर्च का अर्थ रोमन कैथोलिक या कोई अन्य विशिष्ट संगठन नहीं बल्कि ईसा में विश्वास करने वाले लोगों का समुदाय है। उसने पोप, कार्डिनल और बिशप के पदानुक्रम को समाप्त करने की माँग की। मठों और पादरियों के ब्रह्मचर्य को समाप्त करने का विचार उसने रखा। उसके ये विचार अत्यधिक लोकप्रिय हुए। धर्म के प्रश्न को लेकर जर्मनी के राज्य दो दलों में बँट गये-लूथर के समर्थक ‘प्रोटेस्टेण्ट’ कहलाये और उसके विरोधी ‘कैथोलिक’। प्रोटेस्टेण्ट, सुधारवादी थे और कैथोलिक प्राचीन धर्म के अनुयायी। प्रोटेस्टेण्ट धर्म उत्तरी जर्मन राज्यों, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन और बाल्टिक राज्यों में तेजी से फैल गया। काल्विनवाद प्रोटेस्टेण्ट धर्म की स्थापना में लूथर के बाद फ्रांस के ‘काल्विन’ का ही नाम आता है। इनका जन्म 10 जुलाई, 1509 ई० को फ्रांस में हुआ था। इन्होंने लूथर के विचारों को पढ़कर 24 वर्ष की आयु में प्रोटेस्टेण्ट धर्म को अपना लिया। उनका विचार था कि ईसाई धर्म को समझने के लिए ईसा के विचार को समझना आवश्यक है। उनका कहना था कि आचार-विचार का पालन कड़ाई से होना चाहिए। काल्विन के सिद्धान्तों का आधार ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता थी। ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है, इसलिए मनुष्य की मुक्ति न कर्म से हो सकती है न आस्था से, वह तो केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही हो सकती है। मनुष्य के पैदा होते ही यह तय हो जाता है कि उसका उद्धार होगा या नहीं। इसे ही पूर्व नियति का सिद्धान्त’ (Doctrine of Predestiny) कहते हैं। काल्विन के इस सिद्धान्त ने उसके अनुयायियों, विशेषकर व्यापारियों में नवीन उत्साह, आत्मविश्वास एवं दैविक प्रेरणा का संचार किया। अत: यह स्पष्ट है कि काल्विन के धर्म को व्यापारियों का समर्थन इसलिए मिला; क्योंकि उसके सिद्धान्तों से उनके व्यापार को बड़ा लाभ हुआ; उदाहरणस्वरूप-स्कॉट, डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज। वास्तव में “19वीं शताब्दी के सर्वहारा के लिए जो कार्य कार्ल मार्क्स ने किया, वही 16वीं शताब्दी के मध्यम वर्ग के लिए काल्विन ने। काल्विन तत्कालीन पूँजीवादी विकास का समर्थक था। उसने व्यापारियों और मध्यम वर्ग के लोगों के समर्थन से अपने धर्म को मजबूत किया। उसने इस बात पर भी जोर दिया कि पूँजी के लिए सूद (ब्याज) लेना उतना ही ठीक है, जितना कि ज़मीन के लिए मालगुजारी। व्यापार में मुनाफे को वह उचित समझता था। काल्विन को इन विचारों के कारण व्यापारी वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ। अतएव वाणिज्य- व्यापार पर से धार्मिक प्रतिबन्धों के हट जाने से इनका तेजी से विकास हुआ। 27 मई, 1564 ई० को इनकी मृत्यु हो गयी। वैसे तो आधुनिक युग में भौगोलिक खोजों के कारण वाणिज्य, व्यवसाय और अन्ततः पूँजीवादी व्यवस्था का उदय हो चुका था, परन्तु बौद्धिक पुनर्जागरण एवं धर्म-सुधार आन्दोलन ने समुद्र यात्रा और अन्वेषण की इच्छा को और भी तेज कर दिया। सदियों से एशिया कई अत्यन्त कीमती वस्तुओं के लिए यूरोप का स्रोत था। इन वस्तुओं में रेशम सिल्क, सूती कपड़े, कालीन, जवाहरात और मसाले जैसे माल सम्मिलित थे। ये वस्तु या तो यूरोप में मिलती नहीं थीं या यूरोपीय वस्तुओं से बेहतर होती थीं। मिर्च, दालचीनी, लौंग, अदरक, जायफल जैसे मसाले बहुत महत्त्वपूर्ण थे, जिनका प्रयोग दवा बनाने, मांस सुरक्षित रखने और सॉस इत्यादि बनाने में होता था। |
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