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मीराबाई के पदों की भाषागत विशेषताएं बताएँ class 10 sparsh |
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Answer» साहित्यिक विशेषताएँ: भक्ति- भावना-मीरा की भक्ति मार्धुय भाव की कृष्णा भक्ति है। इस भक्ति में विनय भावना , वैष्णवी प्रपत्ति, नवधा भक्ति के सभी अंग शामिल हैं। कृष्णा प्रेम में मतवाली मीरा लोक-लाज, कुल-मर्यादा सव त्यागकर, ढोल बजा-बजाकर भक्ति के राग गाने लगी। वह कहतीं- “माई गई! मैं तो लिया गोविंदा मोल। कोई कहै छानै, कोई कहै छुपकै, लियो री बजता ढोल।” मीरा के लिए राम और कृष्ण के नाम में कोई अंतर नहीं है। एक स्थल पर वह कहती हैं- “राम-नाम रस पीजै।” मनवा! राम-नाम रस पीजें।” + + + “मेरौ मन राम-हि-राम रटै राम-नाम जप लीजै प्राणी! कोटिक पाप कटै।” मीरा ने आँसुओं के जल से जो प्रेम-बेल बोई थी. अब वह फैल गई है और उसमें आनंद- फल लग गए हैं। मीरा के लिए जप - तप, तीर्थ आदि सब साधन व्यर्थ थे। उनके लिए तो प्रेम- भक्ति ही सार -तत्व है। वे कहती हैं - “भज मन चरण कँवल अविनासी। कहा भयौ तीरथ ब्रत कीन्हे, कहा लिए करवत कासीं।” मीरा तो अपने साँवरे के रंग में सराबोर हो गई है-- “मैं तो साँवरे के रंग राँची। साजि सिंगार बांधि पग घुँघरूँ लोक लाज तजि नाची।” कवयित्री की कामना है कि उसके प्रिय कृष्ण उसकी आँखों में बस जाएँ- “बसी मेरे नैनन में नंदलाल मोहनि मूरति साँवरि सूरति नैणां बने बिसाल। अधर सुधारस मुरली राजति उर बैजंती माल।।” मीरा के पदों की कड़ियाँ अश्रुकणों से गीली हैं। सर्वत्र उनकी विरहाकुलता तीव्र भावाभिव्यंजना के साथ प्रकट हुई है। उनकी कसक प्रेमोन्माद कै रूप में प्रकट होती है। उनका उन्माद तल्लीनता और आत्मसमर्पण की स्थिति तक पहुँच गया है। प्रकृति की पुकार में उनका दर्द और बढ़ जाता है -- “मतवारो बादर आयै। हरि को सनेसो कबहु न लायै।।” मीरा की भक्ति में उद्दामता है, पर अंधता नहीं। उनकी भक्ति के पद अतिरिक गढ़ भावों के स्पष्ट चित्र हैं। मीरा के पदों में श्रृगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्ष पाए जाते हैं, पर उनमें विप्रलंभ शृंगार की प्रधानता है। उन्होंने शांत रस के पद भी रचे हैं। उन्होंने ‘संसार को चहर की बाजी’ कहा है, जो साँझ परे उठ जाती है। मीरा की भक्ति के सरस-सागर की कोई थाह नहीं है, जहाँ जब तक चाहो, गोते लगाओ। इसमें रहस्य-साधना भी समाई हुई है। संतों के सहज योग को भी मीरा ने अपनी भक्ति का सहयोगी बना लिया था- “त्रिकुटी महल में बना है झरोखा तहाँ तै झाँकी लाऊ री।” |
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