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‘मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप’ विषय पर लघु निबन्ध लिखिए।

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मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप

मुक्त बाजार के समर्थकों का मानना है कि जहाँ तक सम्भव हो, लोगों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबन्ध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतन्त्रत रहना चाहिए। उन्हें लाभ की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए। यह मुक्त बाजार का सरल चित्रण है। मुक्त बाजार के समर्थक मानते हैं कि अगर बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाए, तो बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। इससे योग्य और प्रतिभासम्पन्न लोगों को अधिक प्रतिफल प्राप्त होगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्राप्त होगा। उनकी मान्यता है कि बाजारी वितरण का जो भी परिणाम हो, वह न्यायसंगत होगा।

हालाँकि, मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबन्धित बाजार का समर्थन नहीं करेंगे। कई लोग अब कुछ प्रतिबन्ध स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे। उदाहरण के रूप में, सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन-मानक सुनिश्चित करने के लिए राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ हो सकें। लेकिन वे तर्क कर सकते हैं कि यहाँ भी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ” ऐसी अन्य सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे उत्तम उपाय हो सकता है। दूसरों शब्दों में, ऐसी सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए निजी एजेंसियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने का प्रयास करें। राज्य के लिए यह भी आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बनाए रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच जबरदस्ती और अन्य बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो। उनका मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है। कहा जाता है कि बाजार किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप पुरुष हैं या स्त्री। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सम्बन्ध आपकी प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है। तो शेष सब बातें बेमानी हैं।

बाजारी वितरण के पक्ष में एक तर्क यह रखा जाता है कि यह हमें अधिक विकल्प प्रदान करता है। इसमें शक नहीं कि बाजार प्रणाली उपभोक्ता के तौर पर हमें अधिक विकल्प देती है। हम जैसा चाहें वैसा चावल पसन्द कर सकते हैं और रुचि के अनुसार विद्यालय जा सकते हैं, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि निजी एजेंसियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं, तो वे उसे विशिष्ट बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ उपलब्ध कराएँगी। यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय हैं और कुछ खुले भी हैं; तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी सच यही है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

मुक्त बाजार और निजी उद्यम के पक्ष में अक्सर सुनने में आने वाला दूसरा तर्क यह है कि वे जो सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्रायः अच्छी होती हैं। लेकिन इन सेवाओं की कीमत उन्हें गरीब लोगों की पहुँच से बाहर कर सकती है। निजी व्यवसाय वहीं जाना चाहता है, जहाँ उसे सर्वाधिक लाभ मिले और इसीलिए मुक्त बाजार ताकतवर, धनी और प्रभावशाली लोगों के हित में काम करने के लिए प्रवृत्त होता है। इसका परिणाम अपेक्षाकृत कमजोर और सुविधाहीन लोगों के लिए अवसरों का विस्तार करने की अपेक्षा अवसरों से वंचित करना हो सकता है।

तर्क तो वाद-विवाद दोनों पक्षों के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं, लेकिन मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखाते हैं। इसी कारण अनेक लोग तर्क करते हैं कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को यह सुनिश्चित करने की पहल करनी चाहिए कि समाज के सदस्यों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हों।



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