1.

निबन्ध लिखें :समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कड़े कानून की नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है- विषय के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।

Answer»

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का निर्माण करने वाली एक अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण इकाई है। उसी पर समाज का स्वरूप निर्भर करता है। उसके सत् तथा असत् व्यक्तित्व का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आज प्रायः कहा जाता है कि हमारा समाज तरह-तरह की बुराइयों में जकड़ता जा रहा है। समाजविद् कहते हैं कि समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए कड़े कानून की नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों की आवश्यकता है।

आज व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में नैतिक शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। नैतिकता के गिरते स्तर के कारण प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में अव्यवस्था अथवा भ्रष्टाचार फैला हुआ है। यदि व्यक्ति के स्तर पर नैतिक मूल्यों को अपनाया जाए तो समाज तथा राष्ट्र में आदर्श चरित्र एवं भ्रष्टाचार रहित जीवन का निर्माण संभव है।

‘नैतिक’ शब्द के कोशगत अर्थ हैं- नीति संबंधी, आध्यात्मिक तथा समाज विहित। ये तीनों अर्थ शील, आचार अथवा आचरण को केंद्र में रखकर किए गए हैं। नैतिकता का संबंध भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों से है। समाज में रहते हुए मानव को अनेकानेक नीतियों का पालन करना होता है। मानव के श्रेष्ठ गुण व नैतिकता एक दूसरे पर निर्भर हैं। बिना श्रेष्ठ गुणों के नैतिकता नहीं और बिना नैतिकता के श्रेष्ठ गुण नहीं आ सकते। नैतिकता ही मनुष्य को सदाचार के निकट और भ्रष्टाचार से दूर ले जाती है।

महापुरुषों तथा दिव्यात्माओं ने अपने आदर्श और आचरण द्वारा इस विश्व को विलासिता तथा अनैतिकता के कीचड़ से निकाला। महान चरित्र सदैव अनुकरणीय होते हैं, चाहे वे यूनान के सुकरात हों या भारत के स्वामी दयानंद, विवेकानंद जैसे महापुरुष हों। हमारे यहाँ वैदिक युग से ही नैतिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है। आज शासन, प्रशासन तथा ज्ञान-क्षेत्रों में अनैतिकता के कारण ही भ्रष्टाचार का दानव अपनी आकृति व शक्ति बढ़ा रहा है। मन को स्थिर, सुदृढ़ तथा न्यायसंगत बनाने के लिए शुद्ध आचार की आवश्यकता है। पशु-स्तर से ऊँचा उठने की कसौटी नौतिकता है। ऋषियों-मुनियों ने आचरण, त्याग और उच्चाशय को जनमानस में रखकर मानवता के उद्धार का प्रयास किया।

अर्थ-प्रणाली के कारण व्यक्ति को नैतिक पतन हुआ है। आज मनुष्य सिद्धियों के पीछे भाग रहा है। वह अपनी उच्च संस्कृति की श्रेष्ठ साधनाओं को भूलता जा रहा है। मन की चंचलता, लोभ, उद्विग्नता, आशाभंग, दुविधा, पलायन आदि मनुष्य को भ्रष्टाचार की ओर ले जा रहे हैं। वैदिक शिक्षा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार फल मानव को सन्मार्ग पर अग्रसर करने के लिए स्वीकार किए गए हैं। आज का मानव केवल अर्थ और काम के पीछे अंधा हो रहा है। उसे अर्थ या पैसा चाहिए और पैसे से वह काम अर्थात् भ्रष्ट आचरण की ओर बढ़ता है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि माता-पिता से ही बच्चे शुद्ध-अशुद्ध आचरण सीखते हैं। परिवेश को शुद्ध करने से नैतिक बल बढ़ेगा और भ्रष्टाचार का अंत हो सकेगा। परिवार में भाई-भाई; भाई-बहन, बहन-बहन तथा अन्य संबंधों में शुद्ध आदर्श अपनाने से समाज शुद्ध होगा।

सामाजिक स्तर पर नैतिक शिक्षा का महत्त्व और भी अधिक है। लोक-व्यवहार को जाति, वर्ग व वर्ण के संघर्ष आदि से मुक्त बनाया जाए। लोक-व्यवहार में परस्पर सहयोग, परोपकार, सहायता व सहनशीलता को महत्त्व देना होगा। किसी की भौतिक उन्नति को देखकर प्रतियोगिता का भाव होना चाहिए। जैसे-तैसे धन प्राप्ति या सुख ग्रहण करने के अनैतिक मार्ग नहीं अपनाने चाहिए। नियमबद्ध नैतिकतापूर्ण जीवन ही श्रेष्ठ जीवन होता है। जो लोग सुगम मार्गों को अपनाकर ऊपर उठना चाहते हैं, वे ही भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। शासन-व्यवस्था में तभी नैतिकता आएगी यदि मतदाता अपना सही दायित्व समझेंगे तथा नैतिक आचरण वाले नेता का चुनाव करेंगे। नैतिक मूल्य अपनाने से भ्रष्ट नेता दूर हटेंगे। हमें यह सोचना है कि धन की प्राप्ति की अपेक्षा धन की शुद्ध प्राप्ति कहीं अधिक महत्त्व रखती है। नीच व भ्रष्ट कर्मों से प्राप्त किया गया धन मनुष्य को भ्रष्ट बनाता है। तभी तो कहा गया है कि ‘जैसा अन्न, वैसा मन’। अतः हमें स्वयं से नैतिकता का पाठ आरंभ करना चाहिए ताकि हम शुद्ध एवं आदर्श समाज की संरचना कर सकें।

पर्यटन तथा सांस्कृतिक संरक्षण –



Discussion

No Comment Found

Related InterviewSolutions