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निबंध लिखिए :‘कर्म की प्रबल है, भाग्य नहीं’- इस कथन के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार प्रकट कीजिए।

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कर्म ही प्रबल या प्रधान है, न कि भाग्य’-इस उक्ति को उक्ति न कहकर सूक्ति कहना चाहिए। युगों-युगों से यह स्थापित सत्य स्वीकार होकर बार-बार प्रमाणित हुआ है कि मनुष्य भाग्य के बल पर नहीं अपितु अपने भुजबल अर्थात् कर्म पर चलकर ही सभी प्रकार की सिद्धियों या उपलब्धियों को पाता है।

संसार के सभी चराचरों में मानव निस्संदेह सर्वश्रेष्ठ प्राणी है क्योंकि केवल इसी में मानसिक बल है। केवल मनुष्य ही चिंतन-क्षमता रखता है तथा केवल उसी में संकल्प करके किसी भी असंभव प्रतीत होने वाले कार्य को संभव बनाने में सामर्थ्य विद्यमान है। पुरुषार्थ के बल पर वह क्या कुछ नहीं कर सकता। उसने अपने पुरुषार्थ के बल पर ही आज मृत्यु लोक का नंदन कानन बना दिया है जिसे देखकर स्वयं विधाता भी चंकित हुए बिना नहीं रह पाएगा।

तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा’ अर्थात् संसार कर्म प्रधान है। यहाँ अपने कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। कर्म के कारण ही आज का मनुष्य पाषाण युग से निकलकर अंतरिक्ष युग में आ पहुंचा है। कर्म ही पुरुषार्थ है। इसी पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य ने पर्वतों को काटकर सड़कें बना दीं, नदियों का रुख मोड़ दिया, समुद्र की गहराइयों से खनिज निकाल लिए, पृथ्वी के गर्भ में छिपी अनंत खनिज-संपदा को प्राप्त कर लिया, आकाश में पक्षियों की भाँति उड़ने में समर्थ हो गया। यही नहीं दूसरे ग्रहों पर भी उसके चरण पड़ चुके हैं। आज के संसार की समस्त वैभव, सुख, समृद्धि आदि का कारण मनुष्य का पुरुषार्थ ही है। इन्हीं सब कारणों से मनीषियों का मानना है कि केवल कार्यशील मनुष्य ही समय पर शासन करते हैं। समय भी उन्हीं के रथ-अश्वों को हाँकता है, जो कर्मण्य हैं।

कुछ लोग मानव जीवन में उसकी उन्नति और उपलब्धियों के लिए भाग्य को उत्तरदायी मानते हैं। भाग्यवादियों के तर्क हैं कि जो कुछ मनुष्य के भाग्य में लिखा है, वह अवश्य होकर रहता है। वे कहते हैं-‘कर्म गति टारे नाहीं टरे।’ भाग्य के कारण ही सत्यवादी एवं महाप्रतापी राजा हरिश्चंद्र को एक नीच के हाथ बिकना पड़ा और श्मशान में नीच काम करना पड़ा। भाग्य के कारण ही श्री राम जैसों को जंगलों की खाक छाननी पड़ी, भाग्य के कारण ही पांडवों को वनवास में अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा और दुर्योधन जैसे अहंकारी ने काफ़ी समय तक सुख भोगा। यदि भाग्य बली न होता, तो भीम जैसे महायोद्धा को विराट के यहाँ रसोइए का काम न करना पड़ता।

कुछ लोग भाग्यवादी होते हैं, तो कुछ पुरुषार्थ के समर्थक। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। पुरुषार्थ पर विश्वास करने वाले कहते हैं कि यदि अब्राहम लिंकन भाग्य के भरोसे बैठा रहता, तो अपने पिता के साथ जीवन भर लकड़ियाँ काटने का काम करता रहता, स्टालिन जीवन भर अपना पैतृक व्यवसाय जूते बनाने का कार्य करता, नेपोलियन कभी विश्व विजेता न बन पाता। भाग्यवादी भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण देकर अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं कि राम के विवाह का शुभमुहूर्त वशिष्ठ जैसे महाज्ञानी ने निकाला था, पर विवाह के तुरंत बाद वन गमन, फिर दशरथ की मृत्यु और बाद में सीता का हरण भाग्य के कारण ही हुए। इसीलिए भाग्यवादियों का कहना है कि ‘अदृश्य की लिपि ही भाग्य है’

दोनों पक्षों का अवलोकन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहने से कुछ प्राप्त नहीं होता। वास्तव में कर्म और भाग्य एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। केवल भाग्य के भरोसे बैठने वाले आलसी और निकम्मे होते हैं। पुरुषार्थ किए बिना भाग्य भी किसी को कुछ नहीं दे सकता। इसीलिए यह सूक्ति सत्य ही प्रतीत होती है-‘दैव-दैव आलसी पुकारा’ अर्थात् ‘भाग्य देगा’, ‘भाग्य देगा’-इस प्रकार का कथन केवल आलसी ही कहा करते . हैं। हमें कवि की इस उक्ति पर ध्यान देना चाहिए-“पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो वर-तुल्य वरो, उठो”।



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