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ऑगबर्न के सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।यासांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या कीजिए।

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उक्ट ऑगबर्न का सांस्कृतिक विलम्बना का सिद्धान्त

विलियम एफ० ऑगबर्न (w. F. Ogburn) ने संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए सर्वप्रथम 1922 ई० में अपनी पुस्तक ‘Social Change’ में सांस्कृतिक पिछड़’ अथवा ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। आपके अनुसार, संस्कृति का तात्पर्य मनुष्य द्वारा निर्मित सभी प्रकार के भौतिक और अभौतिक (Material and non-material) तत्त्वों से है। ‘lag’ का तात्पर्य ‘लँगड़ाना’ अथवा ‘पीछे रह जाना होता है। इस प्रकार संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में जब अभौतिक पक्ष पीछे रह जाता है, तब सम्पूर्ण संस्कृति में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ अथवा ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं। यही स्थिति सामाजिक परिवर्तन का आधारभूत कारण है। ऑगबर्न ने स्वयं इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “…………………. आधुनिक संस्कृति के विभिन्न भाग समान गति से नहीं बदल रहे हैं, कुछ भागों में दूसरी की अपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन हो रहा है और क्योंकि संस्कृति के सभी भाग एक-दूसरे पर निर्भर और एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए संस्कृति के एक भाग में होने वाले तीव्र परिवर्तन से दूसरे भागों में भी अभियोजन की आवश्यकता हो जाती है।”

ऑगबर्न का तर्क है कि संस्कृति के विभिन्न भागों में होने वाले परिवर्तनों की असमान दर ही सांस्कृतिक पिछड़ का कारण है। हम किसी भी प्रगतिशील अथवा आदिम समाज का उदाहरण क्यों न ले लें, अधिकांश आधुनिक समाजों में हमें यह स्थिति देखने को मिलती है। एक ओर, हमारी भौतिक संस्कृति में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं। हम आधुनिक ढंगों से खेती करते हैं, मशीनों के द्वारा उत्पादन कार्य करते हैं, चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से मृत्यु को भी कुछ समय तक रोकने में समर्थ हो गये हैं, परिवहन के साधनों से हजारों मील की दूरी कुछ घण्टों में ही तय करने लगे हैं और संचार के साधनों से हजारों मील दूर की आवाज को कुछ सेकण्डों में ही सुन सकते हैं; लेकिन दूसरी ओर, हमारे विश्वास और लोकाचार आज भी हजारों वर्ष पुराने हैं। व्यक्ति कितना ही प्रगतिशील और शिक्षित क्यों न हो गया हो, वह काली बिल्ली द्वारा रास्ता काटे जाने अथवा टूटे हुए शीशे को देखना अशुभ समझता है और पितृ-आत्माओं की तृप्ति के लिए कुछ व्यक्तियों को भोजन कराने में विश्वास करता है। इसी प्रकार हजारों विश्वास हमारे जीवन को आज भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति से प्रभावित कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का भौतिक पक्ष कहीं आगे बढ़ चुका है, जब कि अभौतिक पक्ष बहुत पीछे है। इसी स्थिति को हम ‘सांस्कृतिक पिछड़’ कहते हैं।
सन् 1947 में अपनी एक अन्य पुस्तक ‘A Handbook of Sociology’ में ऑगबर्न ने ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की परिभाषा में कुछ संशोधन करते हुए कहा है कि “सांस्कृतिक पिछड़ वह तनाव है जो तीव्र और असमान गति से परिवर्तन होने वाली संस्कृति के दो परस्पर सम्बन्धित भागों में विद्यमान होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति में होने वाले कम परिवर्तन को ही हम सांस्कृतिक पिछड़ नहीं कहते, बल्कि संस्कृति के दोनों भागों में से किसी भी एक भाग के दूसरे से आगे निकल जाने की स्थिति को सांस्कृतिक पिछड़ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, हम भारतीय समाज को ले सकते हैं, जहाँ नगरों और ग्रामीण समुदायों में यह स्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में पायी जाती है। नगरों में भौतिक संस्कृति अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा बहुत आगे है, जब कि ग्रामीण समुदाय में भौतिक संस्कृति की अपेक्षा अभौतिक संस्कृति का महत्त्व कहीं अधिक है। तात्पर्य यह है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष दूसरे की अपेक्षा यदि अधिक परिवर्तित हो जाये तो यह स्थिति ‘सांस्कृतिक पिछड़’ की स्थिति उत्पन्न कर देती है।
सांस्कृतिक विलम्बना के कारण तथा परिणाम
सांस्कृतिक विलम्बना के सिद्धान्त में ऑगबर्न ने इस तथ्य को भी स्पष्टं किया कि संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्षों के बीच यह असन्तुलन क्यों पैदा होता है तथा सांस्कृतिक विलम्बना की दशी से सम्बन्धित कौन-से परिणाम सामाजिक परिवर्तन को जन्म देते हैं ? जहाँ तक सांस्कृतिक विलम्बना के कारण का प्रश्न है, इसे पाँच प्रमुख दशाओं के आधार पर समझा जा सकता है

⦁    रूढ़िवादी मनोवृत्तियाँ संस्कृति के अभौतिक पक्ष में परिवर्तन लाने में बाधक होती हैं। अधिकांश व्यक्ति नयी प्रौद्योगिकी को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन वे अपने विचारों, विश्वासों तथा सामाजिक मूल्यों को बदलना नहीं चाहते।

⦁    अधिकांश लोगों में नये विचारों यो नयी वस्तु के प्रति भय की भावना होती है।

⦁     अतीत के प्रति निष्ठा होने के कारण हम प्रत्येक उसे व्यवहार अथवा विचार को अधिक अच्छा समझते हैं जिनको परम्पराओं के रूप में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित किया जाता है।

⦁    समाज के कुछ विशेष वर्गों के निहित स्वार्थ (Vested interests) भी संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्ष के बीच पैदा होने वाले सन्तुलन का एक प्रमुख कारण हैं। समाज का पूँजीपति वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग तथा अधिकारी वर्ग अपने-अपने स्वार्थों के कारण अक्सर नयी प्रौद्योगिकी, नवाचारों, व्यवहार के नये तरीकों अथवा नये विचारों का इसलिए विरोध करता है जिससे उसका पारम्परिक महत्त्व कम न हो जाए।

⦁    नये विचारों की परीक्षा में कठिनता होने के कारण उनकी उपयोगिता की जाँच करना भी अक्सर सम्भव नहीं हो पाता। यही दशाएँ संस्कृति के विभिन्न पक्षों में असन्तुलन पैदा करती हैं।
किसी समाज में जब सांस्कृतिक विलम्बना की दशा उत्पन्न होती है, तब इसके अनेक परिणाम स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। जब संस्कृति का एक पक्ष दूसरे से पिछड़ जाता है, तब

⦁     व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपनी दशाओं से नये सिरे से अनुकूलन करें।

⦁    इसके फलस्वरूप परम्परागत संस्थाओं के कार्य दूसरी संस्थाओं को हस्तान्तरित होने लगते हैं

⦁    यही दशा सांस्कृतिक मूल्यों के प्रभाव में कमी पैदा करती है।

⦁    यदि सांस्कृतिक विलम्बना की दशा लम्बे समय तक बनी रहती है तो सामाजिक सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण सामाजिक समस्याओं में वृद्धि होने लगती है। ये सभी दशाएँ सामाजिक परिवर्तन में वृद्धि करती हैं।
सिद्धान्त की समालोचना यद्यपि यह सच है कि संस्कृति के सभी भाग समान गति से नहीं बदलते, लेकिन जिस रूप में ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, उसमें बहुत-सी कमियाँ हैं

⦁    यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि अभौतिक संस्कृति की तुलना में भौतिक संस्कृति सदैव ही आगे बढ़ जाती है। मैक्स मूलर जैसे प्रसिद्ध विद्वान् ने भारत का उदाहरण देते हुए बताया है कि भारत ज्ञान और त्याग में अत्यधिक प्रगतिशील है, जब कि भौतिक संस्कृति का यहाँ न तो अधिक महत्त्व है और न ही इस क्षेत्र में प्रगति करने का प्रयत्न किया जा सकता है।

⦁     ऑगबर्न ने सांस्कृतिक पिछड़’ को ही सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारण मान लिया है, लेकिन यह सदैव सत्य नहीं है। मैकाइवर का कथन है कि संस्कृति का असन्तुलन सदैव भौतिक और अभौतिक पक्षों के बीच में नहीं होता, बल्कि संस्कृति के एक पक्ष में ही सन्तुलन की स्थिति हो सकती है।

⦁     कभी-कभी अभौतिक और भौतिक संस्कृति के विकास की दर में ही भिन्नता होने से सांस्कृतिक पिछड़ की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों का असन्तुलन भी पिछड़ की स्थिति उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, हम एक समय पर यह विश्वास दिलाते हैं कि दहेज-प्रथा असंगत और असामयिक है और दूसरे समय पर हम स्वयं दहेज लेते और देते हैं। हम अन्धविश्वासों की आलोचना करते हैं और स्वयं ही अन्धविश्वासों के अंनुसार व्यवहार करते हैं। इस स्थिति में हम अभौतिक संस्कृति में होने वाले परिवर्तन की वास्तविक सीमा को नहीं समझ पाते।

⦁    हमारे सामने मुख्य कठिनाई यह आती है कि संस्कृति के अभौतिक पक्ष में होने वाले परिवर्तनों को किस प्रकार मापा जाए ? भौतिक वस्तुओं के परिवर्तनों को हम माप सकते हैं लेकिन अभौतिक पक्ष से सम्बन्धित परिवर्तन का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इस प्रकार भौतिक संस्कृति के तनिक-से परिवर्तन को प्रगति कह देना और अभौतिक संस्कृति में अनेक परिवर्तनों के बाद भी उसे ‘स्थायी’ मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल है।

⦁     ऑगबर्न के इस सिद्धान्त का एक बड़ा दोष यह है कि आपने इस सिद्धान्त को केवल पश्चिमी समाज की परिस्थितियों में ही प्रस्तुत किया है। इस प्रकार यदि हम कहें कि आपने केवल औद्योगीकरण को ही अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन का एकमात्र कारक मान लिया है तो यह गलत नहीं होगा।



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