InterviewSolution
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‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ विषय पर मौलिक कहानी लिखिए |
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Answer» यह उक्ति एक अटल सत्य है कि दूसरों को उपदेश देने वालों की कोई कमी नहीं है। इस उक्ति को चरितार्थ करने वाली एक कहानी स्मरण हो आती है। यह पुराने जमाने की बात है। एक गाँव में एक धनी सेठ रहता था। उसके पूर्वजों के पास भरपूर संपत्ति थी। वह रुपए का लेन देन करने वाला साहूकार भी था। उसके विवाह के तेरह वर्ष बाद भी कोई संतान नहीं हुई। उस काल में आधुनिक डाक्टरी सहायता या विशेषज्ञ नहीं होते थे। केवल हकीम, वैद्य या संत-फकीर ही मान्यता प्राप्त स्रोत थे। सेठ ने दूर-दूर तक सभी वैद्यों व हकीमों के तलवे चाट लिए परंतु उसकी संतान की इच्छा पूर्ण न हुई। अंततः वह उदास रहने लगा और परोपकार के कार्यों में रुचि लेने लगा। लाचार लोगों को बहुत कम सूद पर रुपये देने लगा। श्रावणी शुक्ला के अवसर पर गाँव में मेला लगा तो वहाँ दूर-दूर से साधु-संन्यासी व योगी भी आए। मेले के बाद एक-दो दिन तक सभी साधु लोग तो चले गए परंतु एक साधु वहीं समाधि लगाए रहा। तीन दिन की समाधि भी न खुली तो लोगों ने उनके ऊपर छप्पर छा दिया और आगे बैठने लगे। चार दिन बाद समाधि खुली तो लोगों का तांता लग चुका था। सभी साधु की जय-जयकार करने लगे। सेठ का साधुओं में विश्वास न था। फिर भी वह पत्नी के हठ के सामने झुक गया। सेठसेठानी ने प्रात:काल जाकर साधु के चरणों में नमस्कार किया और अपना दुःख कह सुनाया। साधु ने कहा-“ईश्वर पर भरोसा रखो। उसके घर मे देर है परंतु अंधेर नहीं।” सेठ-सेठानी घर लौट आए। सेठ और भी निराश हो गया। उसने सोचा था कि शायद साधु कोई दवा या नुस्खा देगा। कोरी सांत्वना लेकर आना उसे और भी निराश कर रहा था। समय पाकर सेठानी को आशा जगी। अगले ही वर्ष के मेले से पहले ही उनके यहाँ चाँद-सा पुत्र उत्पन्न हुआ। सेठ-सेठानी की साधु के प्रति श्रद्धा का कोई पारावार न रहा। सेठ हर रोज़ साधु की कुटिया में जाकर सेवा करने लगा। उसने धन खर्च करके पक्का स्थान बनवा दिया। पास ही एक कुआँ खुदवा दिया। फलदार वृक्ष लगवा दिए। श्रद्धालुओं के लिए एक बड़ी धर्मशाला बना दी। सेठ का पुत्र चार वर्ष का हो गया तो उसके शरीर पर फोड़े निकलने लगे। माँ को पता था कि इसका कारण गुड़ है। उसका बेटा गुड़ बहुत खाने लगा था। लाडला पुत्र होने के कारण वह कुछ न कहती थी परंतु जब पानी सिर से ऊपर होने लगा तो वह डाँटने लगी। उसे डाँट का कोई असर न होता। बेटा जानता था कि माँ उसे यूँ ही झूठमूठ की डाँट पिलाती है। फलस्वरूप बेटे का रोग बढ़ने लगा। सेठानी ने बेटे को उसी साधु के पास ले जाकर इलाज पूछने की सोची। बेटा अनमने भाव से चल पड़ा। कुटिया में प्रणाम करके अन्य श्रद्धालुओं के मध्य जा बैठे। जब कथा समाप्त हो गई और प्रसाद बाँटा जाने लगा तो सेठानी ने बालक को साधु महाराज के चरणों में बिठाकर कहा-“महाराज! मेरे बच्चे पर कृपा कीजिए। यह आपके ही आशीर्वाद की देन है। आपकी कृपा से हमारी गोद हरी हुई है अब इसे छीनकर मुझे फिर से निराश न कीजिए।” साधु ने कारण पूछा तो सेठानी ने सारी समस्या उसके सामने खोलकर सुना दी। सारी कहानी सुनकर साधु उठा और भीतर चला गया। बोला कुछ नहीं। निराश सेठानी लौट आई। फिर भी सोचा कि महापुरुष बोलते नहीं हैं अपितु कृपा दिखाते हैं। शायद बेटा सुधर जाए। परंतु बेटा न सुधरा। उसकी गुड़ खाने की आदत और बढ़ गई। सेठानी ने देखा कि अब उसके पुत्र का मुँह भी सड़ने लगा है। वह पुनः साधु के पास गई। इस बार फिर कथा सुनाई तो साधु ने इतना कहा “तुम इसे लेकर अगले महीने की पूर्णिमा की सुबह आना।” सेठानी आज्ञा पाकर उठ खड़ी हुई। बेटे को लेकर चल दी। उसकी सारी आशा निराशा में बदल चुकी थी। वह वैद्यों व हकीमों से दवा खिला-खिलाकर थक चुकी थी। अब वह साधु महाराज ही अंतिम उपचार दिखा सकता था परंतु यहाँ भी निराशा ही मिलती है। अगली पूर्णिमा की सुबह सेठानी फिर साधु के चरणों में गई। स्मरण के लिए पुनः अपने बेटे की बीमारी का वर्णन किया। इस बार साधु फिर उठ गया। बच्चे की ओर कृपाभाव से देखा। उसकी आँखें कातर हो उठीं। वह फिर वही वाक्य बोला कि ‘अगली पूर्णिमा की सुबह आना’। ऐसा कहकर वह भीतर चला गया। सेठानी इस बार अंदर तक टूट चुकी थी। उसकी साधु के प्रति अपार श्रद्धा अब धीरे-धीरे क्षीण होने लगी। जैसे-तैसे महीना काटा। अगली पूर्णिमा की सुबह वह उदास मन से साधु की कुटिया की ओर बेटे सहित जा रही थी। उसकी गति धीमी थी मानो वह पीछे जा रही हो। उसे कोई आशा न थी। कोई उत्साह न था परंतु इस बार साधु ने बच्चे के सिर पर हाथ फेर कर कहा-“देखो बेटा! आज के बाद कभी गुड़ मत खाना।” इतनी बात सुनकर सेठानी ने पूछा”महाराज! इतनी बात तो आप पहले दिन ही कह सकते थे।” इस पर साधु ने कहा-“कैसे कह देता? उन दिनों में भी बहुत गुड़ खाता था”। सेठानी समझ गई कि उपदेश देना कितना कठिन है। |
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