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प्राचीन भारत में रसायनविद्या में साधी गयी प्रगति का वर्णन कीजिए ।

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प्रस्तावना: भारत के बारे में पश्चिमी देशों की आलोचना थी की वह धर्म और तत्त्वचिंतन में डूबा हुआ देश है । उसके पास आध्यात्मिक और रूढ़िगत दृष्टिकोण है परंतु वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव है । आधुनिक संशोधनों के पश्चात् सिद्ध हो गया है और पूर्व आलोचक भी स्वीकारने लगे हैं कि गणितशास्त्र, खगोलशास्त्र, वैदिक विद्या, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति करके अमूल्य विरासत विश्व को प्रदान की है ।

रसायन विद्या:

  • रसायन एक प्रयोगात्मक विज्ञान है । यह विद्या विभिन्न खनिजों, वृक्षों, कृषि, खनिजों, विविध धातु के निर्माण और उसमें परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक औषधियों के निर्माण में उपयोगी है ।
  • रसायनशास्त्रियों में नालंदा विद्यापीठ के आचार्य नागार्जुन को भारतीय रसायनशास्त्र के आचार्य माना जाता है ।
  • नागार्जुन ने ‘रसरत्नाकर’ और ‘स्वास्थ्यमंजरी’ जैसी पुस्तके लिखी थी ।
  • आचार्य नागार्जुन ने वनस्पति औषधि के साथ रसायन औषधी के उपयोग का परामर्श दिया था ।
  • पारे की भस्म बनाकर औषधि के रूप में उपयोग का प्रयोग नागार्जुन ने शुरू किया था ।
  • नालंदा विद्यापीठ में रसायनविद्या के अध्ययन और संशोधन के लिए अपनी अलग रसायनशाला और भट्ठियाँ थी।
  • रसायनशास्त्रों के ग्रन्थों में मुखरस, उपरस, दस प्रकार के विष, विविध प्रकार के क्षारों और धातुओं की भस्म का वर्णन है ।
  • रसायनविद्या की पराकाष्ठा भगवान बुद्ध की धातु शिल्प से दृष्टिगोचर होती है ।
  • बिहार के सुल्तानगंज में भगवान बुद्ध की 7 1/2 फूट ऊँची और 1 टन वजन की ताम्रमूर्ति प्राप्त हुई है ।
  • नालंदा से बुद्ध की 18 फूट ऊँची ताम्रमूर्ति प्राप्त हुई है ।

7 टन वजन और 24 फूट ऊँचा सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमाद्वितीय) द्वारा बनाया गया विजय स्तंभ अभी तक वर्षा, धूप, छाँव के उपरांत अभी तक काट (जंग) नहीं लगा है । यह भारतीय रसायनविद्या का उत्तम नमूना है । निष्कर्ष: प्राचीन भारत के विज्ञान का ज्ञान विश्व में स्वीकार्य हुआ है । हमारी संस्कृति विशाल और वैविध्यपूर्ण है । उसमें धर्म और विज्ञान, परंपरागत आदर्शों, व्यवहारिक ज्ञान और समाज का सुमेल समन्वय हुआ है, जो विश्व के अधिकांश देशों में कम है ।



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