InterviewSolution
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प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए। इस शिक्षा प्रणाली के उद्देश्यों तथा आदर्शों का भी उल्लेख कीजिए।प्राचीन काल में शिक्षा के क्या उद्देश्य थे? वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता की समीक्षा कीजिए। |
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Answer» प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा–सामान्य-परिचय प्राचीन काल में हमारे देश में शिक्षा का सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध था। वैदिककाल में भी भारतवासी शिक्षा के महत्त्व से भली-भाँति परिचित थे तथा शिक्षा-प्रणाली का समुचित विकास हो चुका था। उस काल में भी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास, समाज की उन्नति एवं प्रगति तथा सभ्यता के बहुपक्षीय विकास के लिए शिक्षा को आवश्यक माना जाता था। शिक्षा के प्रति प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण को डॉ० अल्तेकर ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा को प्रकाश और शक्ति का ऐसा स्रोत माना जाता था जो हमारी शारीरिक, मानसिक, भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों तथा क्षमताओं का निरन्तर एवं सामंजस्यपूर्ण विकास करके हमारे स्वभाव को परिवर्तित करता है और उसे उत्कृष्ट बनाता है। प्राचीनकालीन भारतीय समाज ने अपने मौलिक चिन्तन के आधार पर ही एक उन्नत तथा व्यवस्थित शिक्षा-प्रणाली को जन्म दिया था। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए एफडब्ल्यू० थॉमस ने लिखा है, “भारत में शिक्षा, विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहाँ ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो, या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।’ प्राचीन भारतीय समाज ने शिक्षा की अवधारणा के प्रति एक मौलिक तथा सन्तुलित दृष्टिकोण विकसित कर लिया था। उस काल में शिक्षा को क्रमशः ‘विद्या’, ‘ज्ञान’, ‘बोध’ तथा ‘विनय’ के रूप में स्वीकार किया गया था। शिक्षा की प्रक्रिया को व्यापक तथा सीमित दोनों ही रूपों में प्रस्तुत किया गया था। इस तथ्य को डॉ० अल्तेकर ने इस शब्दों में प्रस्तुत किया है, “व्यापक अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य है-व्यक्ति को सभ्य और उन्नत बनाना। इस दृष्टि से शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। सीमित अर्थ में, शिक्षा का अभिप्राय उस औपचारिक शिक्षा से है जो व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने से पूर्व छात्र के रूप से प्राप्त होती है। प्राचीन काल में शिक्षा को उत्तम जीवन व्यतीत करने का साधन तथा मोक्ष-प्राप्ति में सहायक माना जाता था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा या वैदिक शिक्षा के अर्थ को अल्तेकर ने अपने दृष्टिकोण से इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “वैदिक युग से आज तक शिक्षा के सम्बन्ध में भारतीयों की मुख्य धारणा यह रही है कि शिक्षा प्रकाश का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करता है।” प्राचीनकाल में शिक्षा को अन्तर्दृष्टि तथा अन्तर्योति प्रदान करने वाली, ज्ञान-चक्षु तथा तीसरे नेत्र के तुल्य माना जाता था। शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि शिक्षा व्यक्ति के लिए बुद्धि, विवेक तथा कुशलता प्राप्त करने का साधन है। इसके माध्यम से व्यक्ति सुख, आनन्द, यश तथा समृद्धि प्राप्त कर सकता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श प्राचीनकालीन भारतीय समाज में आध्यात्मिकता पर अधिक बल दिया जाता था। व्यक्ति तथा समा की प्राय: समस्त गतिविधियों का निर्धारण आध्यात्मिकता दृष्टिकोण से ही होता था। प्राचीनकाल में उच्च आदर्शों की प्राप्ति ही शिक्षा का उद्देश्य था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का सामान्य परिचय डॉ० अल्तेकर ने इन शुब्दों में स्पष्ट किया है, “ईश्वर-भक्ति एवं धार्मिकता का समावेश, चरित्र का निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कुशलता की उन्नति और राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार।” इस कथने को ध्यान में रखते हुए प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्शों का सामान्य विवरण निम्नवर्णित है 1. ज्ञान तथा अनुभव अर्जित करना– प्राचीनकालीन भारतीय आदर्शवादी समाज में शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था। इस तथ्य को डॉ० मुखर्जी ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात् करना था।” सामान्य रूप से अध्ययन, मनन, स्मरण तथा स्वाध्याय द्वारा ज्ञान अर्जित किया जाता था तथा उसे जीवन में आत्मसात् किया जाता था। छात्रों द्वारा अर्जित किये गये ज्ञान का मूल्यांकन शास्त्रार्थ के माध्यम से किया जाता था। 2. धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति विकसित करना– प्राचीन भारतीय समाज धर्मप्रधान समाज था अतः शिक्षा भी धार्मिकता के प्रति उन्मुख थी। शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करना भी था। डॉ० अल्तेकर ने स्पष्ट कहा है, “सब प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य-छात्र को समाज को धार्मिक सदस्य बनाना था। छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वरभक्ति को विकसित करने के लिए शिक्षा के व्रत, यज्ञ, उपासना तथा धार्मिक गतिविधियों में सम्मिलित होने को आवश्यक माना जाता था। 3. मन की चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध– प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए डॉ० मुखर्जी ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य-चित्तवृत्ति-निरोध’ अर्थात् मन से उन कार्यों का निषेध था, जिनके कारण वह भौतिक संसार में उलझ जाता है। वास्तव में आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने के लिए चित्तवृत्तियों का समुचित निरोध आवश्यक होता है। शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत छात्रों की चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था। 4. चरित्र-निर्माण सम्बन्धी उद्देश्य– प्राचीनकालीन आदर्शवादी भारतीय समाज में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना भी था। डॉ० वेदमित्र ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “छात्रों के चरित्र का निर्माण करना, शिक्षा का एक अनिवार्य उद्देश्य माना जाता था। छात्रों के चरित्र-निर्माण सम्बन्धी शिक्षा के उद्देश्य की सुचारु पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय किये जाते थे। सामान्य रूप से गुरुकुलों तथा गुरु-आश्रमों का सम्पूर्ण वातावरण उत्तम तथा अनुकरणीय होता था। इसके अतिरिक्त सभी गुरु भी इस दिशा में विभिन्न प्रयास किया करते थे। वे अपने शिष्यों के सदाचरण के लिए आवश्यक शिक्षा देते थे तथा उन्हें व्यावहारिक जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित किया करते थे। 5. व्यक्तित्व के समुचित विकास सम्बन्धी उद्देश्य– प्राचीनकालीन शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना भी निर्धारित किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरुजनों द्वारा विशेष प्रयास किये जाते थे। वे अपने छात्रों को विभिन्न सद्गुणों एवं शिष्टाचार के लिए विशिष्ट शिक्षा देते थे। छात्रों को अपने जीवन में आत्मसंयम, आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए समुचित उपाय बनाया करते थे तथा साथ ही विवेक, न्याय तथा निष्पक्षता के दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए प्रेरित किया जाता था। छात्रों के व्यक्तित्व के समुचित विकास क्रे लिए गुरुकुलों में प्राय: उपयोगी सभाएँ, गोष्ठियाँ तथा वाद-विवाद आदि को आयोजित किया जाता था। 6. छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना– प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को सामाजिक एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाना भी स्वीकार किया गया था। इसके लिए गुरुजन अपने शिष्यों को उपयोगी उपदेश दिया करते थे। सामान्य रूप से अतिथि-सत्कार, दीन-दु:खियों की सहायता तथा समाज के अन्य व्यक्तियों को सहयोग प्रदान करने का, उपदेश दिया जाता था तथा इन सद्गुणों को जीवन में आत्मसात् करने के लिए प्रेरित किया जाता था। इसके अतिरिक्त घर-परिवार तथा समाज में रहते हुए विभिन्न कर्त्तव्यों के पालन की शिक्षा दी जाती थी। । 7. सामाजिक कुशलता के विकास सम्बन्धी उद्देश्य– प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों में सामाजिक-कुशलता के विकासको समुचित महत्त्व दिया गया था। शिक्षा को कोरा सैद्धान्तिक नहीं बनाया गया था बल्कि उसे जीविकोपार्जनके साधन के रूप में भी स्वीकार किया गया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान था। सामान्य रूप से कृषि, वाणिज्य शिक्षा, सैन्य शिक्षा, कला-कौशल की शिक्षा तथा चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी थी। 8. भारतीय संस्कृति को संरक्षण एवं प्रसार करना– शिक्षा का घनिष्ठ सम्बन्ध संस्कृति से भी होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य भारतीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना भी निर्धारित किया गया था। इसके लिए सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती थी तथा उनके प्रति सम्मान को विकसित किया जाता था। इन उपायों द्वारा संस्कृति को निरन्तरता प्रदान की जाती थी। वर्तमान में शिक्षा की प्रासंगिकता वर्तमान में प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है
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