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Answer» प्रसिद्ध विद्वान् ऑगबर्न तथा निमकॉफ ने परिवार के सात कार्य निर्धारित किए हैं-धार्मिक, आर्थिक, शैक्षिक, पारिवारिक स्थिति, प्रेम सम्बन्धी, रक्षा सम्बन्धी तथा मनोरंजन सम्बन्धी। उन्होंने इन कार्यों में शैक्षिक कार्यों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है। पारिवारिक शिक्षा के कुछ महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किए जा सकते हैं– परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य (Main Educational Functions of Family) 1.शारीरिक विकास- शरीर का स्वास्थ्य और उसका समुचित विकास मनुष्य के जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। कहते हैं स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। अतः बालक के शारीरिक स्वास्थ्य एवं विकास हेतु पौष्टिक, सन्तुलित भोजन तथा नियमित दिनचर्या को प्रबन्ध किया जाना चाहिए। परिवार बालक के शारीरिक विकास हेतु पौष्टिक भोजन, वस्त्र, मनोरंजन, व्यायाम, खेलकूद, उचित वातावरण, चिकित्सा और विश्राम आदि की व्यवस्था करता है। इसीलिए परिवार का पहला शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य बालक का शारीरिक विकास है। 2. मानसिक विकास- परिवार का वातावरण बालक की मानसिक शक्तियों, रुचियों और प्रवृत्तियों के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि बालक की जिज्ञासा और कल्पना-शक्ति उसके मानसिक विकास की आधारशिला होती है। अत: परिवार का शैक्षिक दायित्व है कि वह यथोचित उत्तर के माध्यम से बालक की जिज्ञासा और उत्सुकता को शान्त करे, उनका दमन न करे। बौद्धिक विकास की दृष्टि से परिवार को भी चाहिए कि वह बालक को सर्वोत्तम एवं वांछित साहित्य सुलभ कराए। वस्तुतः बालक की निरीक्षण, परीक्षण, चिन्तन, कल्पना, विचार आदि मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण परिवार से ही शुरू हो जाता है। 3. भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास- गृह शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य एवं कार्य बालक का भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास है। बालक में घर की सफाई तथा सौन्दर्यकरण द्वारा कलात्मक विषयों के प्रति रुचि जाग्रत की जानी चाहिए। साहित्य, संगीत और कला आदि में विशेष रुचि रखने वाले परिवार के बालकों में भावात्मकःप्रवृत्तियाँ आवश्यक रूप से मिलती हैं। इसके अलावा प्रत्येक समाज की संस्कृति के पालन, संरक्षण तथा हस्तान्तरण का पहला और सार्थक कार्य परिवार के माध्यम से ही सम्भव है। परिवार में रहते हुए बालक सहज और अनजाने ही संस्कृति को ग्रहण कर लेता है। अत: बालक के भावात्मक एवं सांस्कृतिक विकास हेतु घर का वातावरण सदाचरण से युक्त होना चाहिए। 4.चारित्रिक एवं नैतिक विकास- बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास की आधारशिला घर-परिवार में ही रखी जाती है। बालक में शुरू से ही अनुकरण करने की आदत होती है। अत: परिवार के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे बालक में उत्तम चरित्र और नैतिक मूल्यों के निर्माण हेतु सत्य, न्याय, प्रेम, दया, उदारता, सहानुभूति, सहिष्णुता, शिष्टाचार तथा श्रद्धा की भावना जगाएँ। सच तो यह है कि बालक के नैतिक-चरित्र की रूपरेखा विद्यालय जाने से पूर्व छोटी अवस्था में घर पर ही बन जाती है। अतः गृह-शिक्षा के माध्यम से बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। 5. धार्मिक शिक्षा- धार्मिक शिक्षा के अभाव में बालक का पूर्ण नैतिक-चरित्र विकसित नहीं हो सकता। एक धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र परिवार के मुख्य शैक्षणिक कार्य होने के कारण हमारे देश में धार्मिक शिक्षा देने के लिए परिवार का शारीरिक विकास उत्तरदायित्व विशेष रूप से बढ़ गया है। घर में धर्म-ग्रन्थों को पढ़ने, मानसिक विकास धार्मिक कथाएँ सुनने, पूजा-अर्चना तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भावात्मक एवं सांस्कृतिक सम्मिलित होने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं, जिसके फलस्वरूप विकास बालक का धर्म में विश्वास एवं आस्था दृढ़ होती है। पारिवारिक चारित्रिक एवं नैतिक विकास वातावरण से प्राप्त धार्मिक शिक्षा बालक को जीवन-पर्यन्त प्रभावित धार्मिक शिक्षा । करती है। अतः परिवार को एक शैक्षिक उद्देश्य एवं कार्य धार्मिक आदत, रुचि एवं पसन्द का शिक्षा भी है। 6. आदत, रुचि एवं पसन्द का विकास- बालक में सामाजिक भावना का विकास अच्छी-बुरी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों का विकास परिवार में ही व्यावसायिक विकास होता है। घर के सदस्यों की आदतों को देखकर बालक अनजाने ही व्यक्तित्व का विकास उन्हें ग्रहण कर लेता है। घर की सुन्दर व आकर्षक वस्तुओं में उसकी रुचि अधिक होती है। इसी भाँति बालक की अलग-अलग चीजों के प्रति पसन्दगी या नापसन्दगी भी पारिवारिक वातावरण पर निर्भर करती है। अत: यह आवश्यक है कि अच्छी आदतों, रुचियों एवं पसन्दों के विकास हेतु अभिभावकगण अपने बच्चों के सम्मुख श्रेष्ठ उदाहरण ही प्रस्तुत करें। 7. सामाजिक भावना का विकास- परिवार एक छोटा-सा समाज है जो बालक को सामाजिक आदर्श एवं परम्पराओं के नमूने और आदर्श आचरण एवं व्यवहार के तरीके सिखाता है। परिवार के वातावरण में ही बालक को पहली बार सहयोग, सद्भावना, न्याय तथा अन्याय की अनुभूति होती है। स्पष्टतः परिवार ही बालक के सामाजिक जीवन का पहला शैक्षिक केन्द्र है, जहाँ उसमें अभीष्ट सामाजिक भावनाओं का विकास होता है। 8. व्यावसायिक विकास- गृह-शिक्षा का एक उद्देश्य एवं कार्य यह भी है कि वह बालक की व्यावसायिक रुचियों एवं अभिरुचियों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर उसे उचित व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करे। वस्तुतः बालक की व्यावसायिक रुचियों व आकांक्षाओं की जितनी व्यापक जानकारी उसके परिवार के सदस्यों को हो सकती है, उतनी समाज की अन्य व्यावसायिक एवं प्रशिक्षण संस्थाओं को नहीं हो सकती। प्राचीनकाल में आयु बढ़ने के साथ-साथ बालके पैतृक व्यवसाय में हाथ बँटाकर प्रशिक्षण प्राप्त करता था और इस भाँति कुशलता प्राप्त कर लेता था। 9. व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, धार्मिक, नैतिक तथा सामाजिक आदि विभिन्न पक्षों का विकास परिवार के बीच रहकर ही होता है। बचपन में पड़ने वाले अच्छे संस्कारों का प्रभाव स्थायी होता है और यह बालक के व्यक्तित्व को सन्तुलित एवं सुन्दर बनाता है। वस्तुतः गृह शिक्षा बालक के व्यक्तित्व के भावी विकास का स्वरूप एवं दिशा निर्धारित करती है। इस भाँति घर या परिवार ही वह प्रथम स्थान है, जहाँ बालक जीवन की अनेकानेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। गृह-शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य एवं कार्य बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है। रेमॉण्ट ने उचित ही लिखा है, “सामान्य रूप से घर ही वह स्थान है जहाँ बालक अपनी माँ से चलना, बोलना, मैं और तुम में .. अन्तर करना और अपने चारों ओर की वस्तुओं के सरलतम गुणों को सीखता है।”
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