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राजस्व या लोकवित्त का अर्थ एवं परिभाषाएँ बताइए तथा लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र स्पष्ट कीजिए।

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राजस्व या लोकवित्त अर्थशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विभाग है, जिसका अभिप्राय “सरकारी प्रक्रिया में आयगत व्यय के चारों और जटिल समस्याओं के केन्द्रीकरण से है।” यह अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की मध्य सीमा पर स्थित अर्थविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जो राज्यों के वित्तीय पक्ष का विधिवत् अध्ययन करता है।
राजस्व की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व के अन्तर्गत सार्वजनिक सत्ताओं से आय व व्यय एवं उनका एक-दूसरे से समायोजन एवं समन्वय का अध्ययन किया जाता है।”
एडम स्मिथ के अनुसार, “राज्य व्यय तथा आय के सिद्धान्त एवं स्वभाव के अनुसन्धान को राजस्व कहते हैं।”
फिण्डले शिराज के अनुसार, “राजस्व ऐसे सिद्धान्त का अध्ययन है जो कि सार्वजनिक सत्ताओं के व्यय एवं कोषों की प्राप्ति से सम्बन्धित है।”
लुट्ज के अनुसार, “राजस्व उन साधनों की प्राप्ति, संरक्षण और वितरण कर अध्ययन करता है। जो राजकीय या प्रशासन सम्बन्धी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यक है।”

राजस्व या लोकवित्त का अध्ययन-क्षेत्र
राज्य द्वारा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित जो भी नीतियाँ एवं सिद्धान्त निर्मित किये जाते हैं वे सभी राजस्व की विषय-सामग्री के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाते हैं। राजस्व के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं का अध्ययन किया जाता है

1. सार्वजनिक आय – राजस्व के अन्तर्गत सरकार की आय के विभिन्न स्रोतों, आय के स्रोतों के सिद्धान्तों, आय के साधनों का क्रियान्वयन एवं उनके पड़ने वाले प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में, राजस्व के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार की आय के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं? इसमें कर, कर के सिद्धान्त एवं करों के प्रभावों आदि का अध्ययन किया जाता है।
2. सार्वजनिक व्यय – सार्वजनिक व्यय के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार द्वारा प्राप्त आय को जनता के कल्याण हेतु किस प्रकार व्यय किया जाए ? व्यय के सिद्धान्त क्या होने चाहिए, सार्वजनिक व्यय का समाज के उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा आय व रोजगार पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
3. सार्वजनिक ऋण – जब सरकार की आय, व्यय की अपेक्षा कम होती है तब सार्वजनिक व्ययों की पूर्ति हेतु सरकार को ऋण लेने पड़ते हैं। ये ऋण आन्तरिक एवं बाह्य दोनों साधनों से प्राप्त किये जा सकते हैं। सार्वजनिक ऋण कहाँ से प्राप्त किये जाएँ, ऋण लेने के उद्देश्य, ऋणों को किस प्रकार लौटाना है व ऋणों पर ब्याज की दरें क्या होनी चाहिए आदि बातों का अध्ययन सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत किया जाता है।
4. संघीय वित्त – भारत में संघात्मक वित्तीय प्रणाली को अपनाया गया है अर्थात् केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के बीच आय का बंटवारा किन सिद्धान्तों के आधार पर किया जाए तथा केन्द्र सरकार राज्यों को किस अनुपात में अनुदान आदि का वितरण करे आदि का अध्ययन संघात्मक वित्त-व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।
5. वित्तीय प्रशासन – वित्तीय प्रशासन के अन्तर्गत सम्पूर्ण वित्तीय व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। बजट किस प्रकार बनाया जाए, बजट को पारित करना, करों का निर्धारण एवं करों का संग्रह करना, सार्वजनिक व्ययों का संचालन व नियन्त्रण तथा सार्वजनिक व्यय की अंकेक्षण (Audit) वित्तीय प्रशासन में सम्मिलित हैं।
6. राजकोषीय नीति एवं आर्थिक सन्तुलन – राजकोषीय नीति के द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थायित्व (Economic Stability) एवं आर्थिक विकास (Economic Development) से सम्बन्धित कार्यक्रम तैयार किया जाता है अर्थात् अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के लिए देश के तीव्र आर्थिक विकास हेतु कर, आय, व्यय, ऋण एवं घाटे की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाये जिससे कि देश में आर्थिक स्थिरता बनी रहे तथा देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास हो सके। सुदृढ़ एवं संगठित वित्तीय नीति आर्थिक विकास व आर्थिक स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।



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