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राष्ट्र का स्वरूप कहानी का सारांश लिखें।

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डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल मशहूर इतिहासकार और प्राचीन भारत के विद्वान हैं। उन्होंने प्रस्तुत निबन्ध में राष्ट्र का स्वरूप, तत्व और लक्षणों के बारे में लिखा है। लेखक ने भारतीय संस्कृति की भी चर्चा की है। भूमि और उसके निवासी तथा उनकी संस्कृति का मिलन ही राष्ट्र है।

भूमि को हमारे ऋषि-मुनियों ने माता कहा है और पृथ्वी-संतान को पुत्र कहा गया है। भूमि अपनी संतान को जीवित रखने के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं को देती है। इसीलिए भूमि को वसुंधरा कहते हैं। भूमि पर नद-नदी, टीले-पहाड़, तालाब-पोखर, कुएँ-बावड़ियाँ, झरने- प्रपात, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी हैं। इनसे प्रकृति का संतुलन बना रहता है। मनुष्य को पानी, आहार मिलता है। भगवान ने प्राकृतिक संपदा देकर मानव जाति को जीने की कई सुविधाएँ उपलब्ध कराई है।

राष्ट्र का दूसरा अंग है- जन या लोग, जो भूमि पर रहते हैं। वे भूमिपुत्र कहलाते हैं। भूमि पर रहनेवाले लोगों के लिए भूमि उनकी माता है। संतान की देखभाल करना माता का कर्तव्य है। माँ की सेवा करना और उसका हित चाहना पुत्र का कर्तव्य है। इस प्रकार भूमि और उसके जन का सम्बन्ध अटूट है।

भारत में भूमि को मातृभूमि, जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है। भूमि की चर-अचर, पशु-पक्षी तथा प्रकृति का संरक्षण करने पर ही यह भूमि हमारा ध्यान रखती है। अतः पर्यावरण की रक्षा करना हम सबका कर्तव्य है।

राष्ट्र का तीसरा अंग है- संस्कृति। यह बहुत ही मुख्य अंग है। जीवन में जो भी अच्छाई है, वही संस्कृति कहलाती है। साहित्य, कलाएँ, आचार-विचार आदि मिलकर ‘संस्कृति’ का रूप लेते हैं। जीवन में जिस प्रकार अंतरंग और बहिरंग दो रूप होते हैं, वैसे संस्कृति के भी दो रूप होते हैं- खान-पान, घर-बार, मंदिर-मसजिद – ये संस्कृति के बहिरंग रूप हैं। साहित्य और संगीत का आनंद, ललित कलाओं की मधुर अनुभूति इत्यादि संस्कृति के अंतरंग रूप हैं।

हमारे पूर्वजों ने साहित्य, कला, संगीत, शास्त्र आदि क्षेत्रों में प्रतिभा दिखाई थी। हमें उस परंपरा को निभाए रखना चाहिए। भविष्य के प्रति आशावादी होना चाहिए। भूतकाल से सबक सीखते हुए, वर्तमान को साथ लेकर, अपने उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होना है। इस कार्य में संस्कृति सदा हमारे साथ है।



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