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रेग्यूलेटिंग ऐक्ट की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए तथा उसके गुण-दोष की विवेचना कीजिए। |
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Answer» रेग्यूलटिंग ऐक्ट की विशेषताएँ- इस ऐक्ट की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ⦁ कम्पनी के डायरेक्टरों का कार्यकाल एक वर्ष की जगह 4 वर्ष कर दिया गया तथा उनकी संख्या बढ़ाकर 24 कर दी गई। इनमें से एक-चौथाई सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करेंगे। ⦁ कम्पनी के संचालकों के चुनाव में वही व्यक्ति मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास कम्पनी के 1,000 पौण्ड के शेयर होंगे। ⦁ बंगाल के गवर्नर को अब गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा उसका कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया। बम्बई (मुम्बई) तथा मद्रास (चेन्नई) के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए। ⦁ शासन कार्य में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल बनाई गई। कौंसिल के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया तथा यह भी कहा गया कि कौंसिल के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। ⦁ गवर्नर जनरल का वेतन 25,000 पौण्ड प्रतिवर्ष निश्चित किया गया। ⦁ ऐक्ट में यह भी निश्चित किया गया कि कम्पनी का कोई भी कर्मचारी भविष्य में लाइसेंस लिए बिना निजी व्यापार नहीं करेगा और वह किसी से भेंट अथवा उपहार भी नहीं लेगा। ⦁ कलकत्ता (कोलकाता) में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश व तीन अन्य न्यायाधीश होंगे। इनके फैसलों के विरुद्ध केवल इंग्लैण्ड स्थित प्रिवी कौंसिल में ही अपील की जा सकती थी। ⦁ कम्पनी के संचालकों व भारत में स्थित कम्पनी के बीच में जो भी पत्र-व्यवहार होगा, उसकी एक प्रति इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजी जाएगी। (i) यद्यपि कम्पनी पर इंग्लैण्ड की सरकार ने अपना अधिकार कर लिया, तथापि व्यावहारिक रूप से उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल को अपने ही कार्यों से फुरसत नहीं मिलती थी। (ii) यद्यपि इस अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल ब्रिटिश सरकार का सर्वोच्च अधिकारी था, परन्तु वह कौंसिल के बहुमत की कृपा पर निर्भर था। इस कानून के अनुसार गवर्नर जनरल कार्यकारिणी के निर्णयों को स्वीकार करने के लिए बाध्य था। उसको यह अधिकार नहीं दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी’ (कौंसिल) के बहुमत को अस्वीकार कर सके। ऐसी स्थिति में वह अनेक बार उपयुक्त कार्यों को करना चाहकर भी नहीं कर पाता था। चार सदस्यों में से तीन सदस्य समकालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के प्रत्येक कार्य में बाधा डालते थे। इन सदस्यों ने उस पर अनेक झूठे आरोप भी लगाए थे, जिसके कारण वारेन हेस्टिंग्स को कई बार त्याग-पत्र तक देने के विषय में सोचना पड़ा। अतः इस कानून का मुख्य दोष यही था कि इसमें गवर्नर जनरल के अधिकार सीमित रखे गए थे, जबकि वह शासन-प्रबन्ध में सर्वोच्च अधिकारी था। (iii) मद्रास और बम्बई प्रान्तों के केवल विदेशी मामले ही गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी के अधीन रखे गए थे, आन्तरिक मामलों में वहाँ की स्थानीय सरकारें अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतन्त्र थीं। यह एक व्यावहारिक दोष था। (iv) सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित अनेक तथ्य अस्पष्ट थे। कानून में यह विस्तृत रूप से वर्णित नहीं किया गया था कि न्यायालय किस प्रकार के मुकदमों का निर्णय करेगा। न्याय करने में न्यायालय ब्रिटिश कानूनों का पालन करेगा या भारतीय कानूनों का, यह भी स्पष्ट नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त न्यायालय और गवर्नर जनरल तथा कार्यकारिणी में समन्वय स्थापित नहीं किया गया था। अधिकार क्षेत्र के मामले में इनमें प्राय: संघर्ष हो जाता था। (v) रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ द्वारा कम्पनी के कर्मचारियों के व्यक्तिगत व्यापार करने, उपहार एवं भेंट लेने पर तो प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु उनकी आय में वृद्धि के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अतएव प्रशासन में रिश्वत व भ्रष्टचार का समावेश हो गया था। (vi) इस अधिनियम में कम्पनी के संचालकों के चुनाव में मतदाता बनने की योग्यता का मापदण्ड 500 पौण्ड से 1,000 पौण्ड कर दिए जाने से कम्पनी पर कुछ धनी व्यक्तियों का ही आधिपत्य हो गया। रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ की त्रुटियों को भारतीय संवैधानिक सुधारों पर प्रतिवेदन में निम्न प्रकार वर्णित किया गया हैइसने (1773 ई० के ऐक्ट ने) ऐसा गवर्नर जनरल बनाया, जो अपनी कौंसिल के समक्ष अशक्त था। इसने ऐसी ‘कार्यकारिणी’ बनाई जो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अशक्त थी और ऐसा न्यायालय बनाया, जिस पर देश की शान्ति तथा हित का कोई स्पष्ट उत्तरदायित्व नहीं था।” एडमण्ड बर्क ने ‘रेग्यूलेटिंग ऐक्ट’ को एक अधूरा कदम बताया है, जिसने कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को अस्पष्ट ही छोड़ दिया। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि यह कानून अनेक दोषों से परिपूर्ण था, तथापि इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में ‘रेग्युलेटिंग ऐक्ट’ का महत्वपूर्ण स्थान है। ऐक्ट के गुण- यद्यपि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि यह सर्वथा गुणरहित भी नहीं था। यह पहला अवसर था जब कम्पनी पर संसद के नियन्त्रण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस ऐक्ट के आधार पर ही धीरे-धीरे कम्पनी पर कठोर नियन्त्रण किया गया और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 1858 ई० तक तो कम्पनी की सत्ता ही समाप्त कर दी गई। अतः इस अधिनियम के परिणाम बड़े ही दूरगामी व स्थायी सिद्ध हुए। कम्पनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर लगाया गया प्रतिबन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि इस ऐक्ट में गुण व दोष दोनों ही विद्यमान थे। इस ऐक्ट के बारे में सप्रे ने ठीक ही लिखा है, “यह अधिनियम संसद द्वारा कम्पनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए।’ |
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