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Answer» सामाजिक वानिकी का अर्थ वनों को समाजोन्मुख बनाकर सम्वर्द्धन तथा संरक्षण की नीति को सामाजिक वानिकी नीति कहा गया है।” वनों के समीप के ग्रामीण वनों से अनियन्त्रित चारा एवं लकड़ी काटते हैं। ठेकेदार आदि लाभ के लोभ में वनों की अनियमित एवं अनियन्त्रित कटाई कर देते हैं जिसके कारण दिन-प्रतिदिन वनों का ह्रास हो रहा है। वनों के विनाश को देखकर वन-विभाग द्वारा वनों के रक्षण की नीति अपनायी गयी। ग्रामीणों को चारा तथा लकड़ी काटने पर वन विभाग द्वारा रोक लगा दी गयी। इस प्रकार वन-विभाग द्वारा वनों की सुरक्षा होने लगी। वन विभाग की कंड़ी सुरक्षा के कारण लोगों को असुविधा होने लगी जिसके कारण सामान्य जन का वनों से लगाव कम हो गया। ऐसी स्थिति में वन नीति पर पुनर्विचार किया गया तथा यह अनुभव किया गया कि वनों का विकास तभी सम्भव है जब वनों तथा सामान्य लोगों के मध्य पारस्परिक निर्भरता तथा उत्तरदायित्व का विकास किया जाए, वनों को समाजोन्मुख बनाकर ही वनों का विकास एवं संरक्षण किया जा सकता है। सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत समाज के लोग स्वयं वृक्षों को लगाते हैं, वनों को सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा वनों के विकास में सहयोग देते हैं। यह योजना जन सहयोग पर आधारित है। लक्ष्य यह कि कोई भी भूमि जहाँ पेड़ लग सकते हैं पेड़ों से खाली न रहे। ग्राम समाजों, विकास खण्डों, जिला पंचायतों, स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के माध्यम से वृहद् स्तर पर वृक्षारोपण का कार्यक्रम क्रियान्वित किया जाए। वनों की सुरक्षा के लिए अलग चरागाह होने चाहिए। सामाजिक वानिकी की आवश्यकता एवं महत्त्व सन्तुलित पर्यावरण की संरचना पर मानव-जीवन का सुख निर्भर है और वन सन्तुलित पर्यावरण का प्रमुख घटक है। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी प्राकृतिक निधियों को नष्ट न होने दें, बल्कि उन्हें संजोकर रखें। पर्यावरण में सन्तुलन होगा तो वर्षा होगी, स्वच्छ जल मिलेगा तथा वन बने रहेंगे, परिणामस्वरूप वनों की रक्षा से पर्यावरण सन्तुलित होगा, जिससे सम्पूर्ण प्राणि-जगत् को कल्याण होगा। वातावरण और पारिस्थितिकी में सन्तुलन स्थापित होगा। वृक्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे साथी हैं। मनुष्य प्राचीन काल से अद्यतन दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ वनों से ही प्राप्त करता आ रहा है; यथा-भवन निर्माण हेतु इमारती लकड़ी, बाँस, घास, फर्नीचर की लकड़ी, ओषधियाँ, खाने के लिए विभिन्न प्रकार के फल-फूल आदि। सुखमय भविष्य एवं स्वच्छ पर्यावरण के लिए वृक्षों को लगाना, वनों का संरक्षण एवं सम्वर्द्धन करना अति आवश्यक है। वृक्षों के द्वारा ही पर्यावरण के प्रदूषण पर नियन्त्रण किया जा सकता है। वृक्षारोपण से रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं। कुछ वृक्ष ओषधियाँ प्रदान करते हैं। उपर्युक्त बातों से सामाजिक वानिकी की उपयोगिता सिद्ध होती है। इसी से विश्व-कल्याण एवं मानव-कल्याण सम्भव है। पालतू पशुओं एवं वन्य-जन्तुओं के लिए घास-पत्ती, फल-फूल तथा आवासीय सुविधा वृक्षों से ही प्राप्त होती है। मांसाहारी पशु-शाकाहारी जन्तुओं पर आश्रित रहते हैं। शाकाहारी जन्तु वनस्पतियों पर आश्रित रहते हैं। इस प्रकार सभी जीवधारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर आश्रित रहते हैं। अनेक उद्योगों के लिए कच्चा माल वृक्षों से ही प्राप्त होता है; जैसे – दियासलाई, कागज, प्लाइवुड, पैकिंग केस, लाख, कत्था, तारपीन, बिरोजा, खेलकूद का सामान तथा विभिन्न प्रकार के काष्ठोपकरण हेतु उपयोगी काष्ठ। वृक्ष प्राण-वायु (ऑक्सीजन) प्रदान करते हैं। श्वसन में प्रत्येक जीवधारी अशुद्ध वायु (कार्बन डाइ-ऑक्साइड) छोड़ते हैं और शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) ग्रहण करते हैं। वृक्ष अशुद्ध वायु (कार्बन डाइ-ऑक्साइड को अपने भोजन बनाने में ग्रहण करते हैं और शुद्ध वायु (ऑक्सीजन) छोड़ते हैं। यह शुद्ध वायु हमें सभी प्राणियों की प्राण वायु है। इस प्रकार वृक्ष वायुमण्डल में विभिन्न गैसों को सन्तुलन बनाये रखते हैं। वृक्षों से जलवायु का नियन्त्रण एवं भूमि संरक्षण होता है। वर्षा को सन्तुलित करना, गर्मी-सर्दी को अनुकूल रखना तथा हवा व पानी के वेग को नियन्त्रित रखकर मिट्टी के कटाव को रोकना, वृक्षों और वनों का ही काम है।
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