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‘सारा आकाश’ उपन्यास के प्रमुख पात्र ‘समर’ का चरित्र-चित्रण कीजिए।

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समर राजेंद्र यादव कृत उपन्यास ‘सारा आकाश’ का नायक है। उसके चरित्र में निम्नलिखित गुण पाए जाते

1. विवाहित छात्र- समर एक विवाहित छात्र है। वह अभी इंटर में पढ़ रहा है। परंतु उसका प्रभा से विवाह हो जाता है। जिस काल की कथावस्तु इस उपन्यास में है, उस काल में विवाह ही प्रत्येक माता-पिता का चरम उद्देश्य हुआ करता था। वे अपने बच्चों का प्राय:छात्रावस्था में ही विवाह कर देते थे। समर की विवाह के संबंध में सहमति नहीं थी परंतु वह अपने माता-पिता की इच्छा का विरोध भी नहीं कर पाता। वह विवाह के संबंध में सोचता है

“इस समय तो ऐसा लगता है कि जैसे एक तेज बहाव है जो मुझे अपने साथ बहाए लिए जा रहा है। जाने कहाँ ले जाकर छोड़ेगा? लेकिन अब इस वर्तमान का क्या करूँ? बीच में आए इस मायाजाल और मोहिनी में अपने को फँस जाने दूं या इस झाड़ी से कतराकर निकल जाऊँ? जहाँ तक हो सकेगा मैं इसमें उलझूगा नहीं, यह मेरा निश्चय है। हे भगवान, इस परीक्षा के समय मेरी आत्मा को बल देना, मुझे दृढ़ता देना कि मैं झुक न जाऊँ…..कहीं मैं हार न जाऊँ।’?

2. अहंवादी- उपन्यासकार ने समर को एक अहंवादी पति के रूप में चित्रित किया है। वह प्रभा को न जाने क्यूँ एक निर्जीव वस्तु समझता है। उसके सामने जाते ही उसका अहं उसे झकझोरने लगता है और वह परंपरागत पुरुष की तरह अपने वर्चस्व के विषय में सोचने लगता है। सुहागरात के क्षणों में भी उसका पत्नी से न बोलना इसी अहं का परिचायक है। वह सोचता है-“मुझे तो आज एक बहुत बड़ा निश्चय करना है-परीक्षा का सबसे कठिन पेपर है। आज अगर फिसल गया तो संसार की कोई शक्ति मेरा उद्धार नहीं कर सकती और अगर आज ही निकल गया तो एक साथ सारे सिरदर्द से पीछा छूट जाएगा।” सुहागरात के अबोले से शुरू हुआ उसका अहं निरंतर चलता रहता है।

इस बीच प्रभा अपने मायके भी छह महीने तक रह आती है परंतु वह उसे लेने नहीं जाता। अंततः छोटे भाई को भेजा जाता है। समर का अंह इतना बड़ा तथा अकारण हिंसक हो जाता है कि वह प्रभा को किसी भी दशा में अपना जीवन-साथी मानने के लिए तैयार नहीं होता। वह सोचता है कि उसकी स्थिति सबसे अलग है”मेरा रास्ता हजारों लाखों लड़कों का रास्ता नहीं है। ऊपर से देखने में मैं चाहे जैसा लगूं, मैं उनसे हर हालत में भिन्न हूँ। मेरा भविष्य मेरे हाथों में है। मैं हर क्षण तलवार की धार पर चलता हूँ। बस जरासा अपने को साध लूँ। डगमगाऊं नहीं। मैंने हर समय अपने को इन लोगों से कितना ऊँचा उठा हुआ पाया है।

वह इतना अहंवादी है कि प्रभा को अपनी दासी से भी कम महत्त्व देता है। यह प्रवृत्ति उसे एक अहंकारी पति सिद्ध करती है। दाल में नमक अधिक होने के प्रसंग में भी वह ऐसा ही व्यवहार करता है। वास्तव में उसे शिक्षा ही ऐसी मिली थी कि पत्नी को दबाकर रखा जाए। वह सोचता है कि प्रभा उसके पैरों में पड़ी रहे

मैं तो सोचता था कि वह मेरे पाँवों पर झुक जाएगी तो मैं उसके दोनों कंधे पकड़ कर उठा लूंगा। यही तमीज और अदब सिखाया है घर वालों ने? उस वक्त तो बड़े गर्व से कहा था कि लड़की मैट्रिक तक
पढ़ी है।”

3. व्यावहारिक न होना – समर व्यवहार कुशल व्यक्ति नहीं है। उसमें अनुभव की बहुत कमी है। वह संबंधों में तालमेल बिठा पाना नहीं जानता। उसे परिवार में समरसता स्थापित करना नहीं आता। वह संयुक्त परिवार में रहता है। घर में अम्मा तथा बाबूजी है। बड़े भाई तथा भाभी हैं। पत्नी प्रभा के अतिरिक्त दुखद दांपत्य की प्रतीक बहन मुन्नी है। दो छोटे भाई भी हैं। इन सबमें व्यावहारिकता अपनाकर चलना आवश्यक था। परंतु वह इस दृष्टि से पूरे पूर्वार्ध में अयोग्य सिद्ध होता है। इसीलिए भाभी के बहकावे में आता रहता है और पत्नी प्रभा से दूर होता जाता है।

समर एक बार व्यवहार कुशल होने की बात सोचता भी है-

“हाँ मैं उससे कहूँगा, देखिए हम लोग काफी समझदार हैं। माँ-बाप जैसे भी हैं या जो भी कर सकते हैं, उन्होंने कर दिया, लेकिन अपना आगा-पीछा तो हमें ही देखना है। सबसे पहले तो हमें अपनी शिक्षा पूरी करनी होगी।”

परंतु प्रभा के सामने आते ही उसका दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। गणेश की मूर्ति से बर्तन माँजने के प्रसंग में तो वह थोड़ा-सा भी अनुभव नहीं दिखाता और भड़क उठता है। प्रभा कहती है कि उससे अज्ञानवश यह सब हो गया है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई पशुपन पर उतर आए। समर उसके मुँह पर अचानक ही इतनी जोर से चाँटा मारात है कि पाँचों उंगलियाँ उभर कर छप जाती हैं। यही नहीं वह उसको गाली भी देता है कि “हरामजादी, यहाँ रहना है तो ढंग से रहो तथा बड़ी नास्तिक की बच्ची बनती है।” यह सत्य है कि समर को बाद में यह सोचकर बड़ा पश्चाताप होता है कि उसको प्रभा के साथ इस प्रकार पेश नहीं आना चाहिए था, किंतु उसके इस अव्यावहारिक क्रोध से प्रभा पर पाश्विक प्रहार तो हो ही चुका था।

4. संयुक्त परिवार की घुटन का शिकार – समर संयुक्त परिवार की घुटन का शिकार युवक है। उसे डर डर कर जीना पड़ता है। अम्मा के कटाक्ष, बाबूजी का आतंक, भाभी के व्यंग्य-बाण-सब उसे दबाते रहते हैं। वह पिता से फीस के 25 रु० माँगने पर इतना अपमान सहता है कि उसे आत्मग्लानि हो उठती है। अम्मा तब तक तो ठीक थी, जब तक वह प्रभा के प्रतिकूल था परंतु स्थिति बदलते ही वह भी समर की शत्रु हो जाती है। उसके कटाक्ष दूर-दूर तक मार करते हैं। बाबूजी के सामने उसका इतिहास देखिए – “बाबूजी के सामने पड़ने से मैं हमेशा ही डरता रहा हूँ। यों इधर तीन-चार साल से उन्होंने हाथ नहीं उठाया, लेकिन शरीर पर पड़ी हुई पुरानी नीलें अभी भी ताजी हो आती हैं। और ये यादें ही जैसे उनके आतंक को दिन-दूना रात चौगुना बढ़ाया करती हैं। किस समय वे क्या कर बैठेंगे, कोई ठिकाना नहीं; जिन दिनों वे मुझे मारते थे उन दिनों तो एक अल्हड़ और जिद्दी निश्चिन्तता रहती थी कि ज्यादा-सेज्यादा पीट ही तो देंगे।

समर की भाभी संयुक्त परिवार का एक सशक्त स्तंभ है। वह उस पर अलग-से दबदबा बनाए हुए हैं। वह उसे सहज नहीं होने देती। निरंतर प्रभा के विरुद्ध भड़काना उसकी आदत बन चुकी है –

“लो, सुनो लालाजी की बातें ! मैं क्या उसके पेट में घुस के देख आई, सुनी-सुनाई बात मैंने कह दी।” फिर गहरी साँस ली, “ओफ्फो, हद है घमंड की भी! आने-जाने के नाम खाक-धूल नहीं और घमंड ऐसा! कसम से कहती हूँ, मैं तो इतनी बड़ी हो गई, ऐसी घमंडिन औरत अपनी जिंदगी में नहीं देखी। बोलो, गुन-करतब हों तो नखरे भी सहे जाएँगे, कोरे नखरे कौन उठाएगा? असल में उन्होंने लेना चाहा पढ़ाई और खूबसूरती के रोब में, सो ऐसी राजा इंदर की परी भी नहीं लगी।”

5. आत्मविश्लेषण – समर का चरित्र उपन्यास के दो अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रकृति का है। पहले भाग में वह एक उदंड और क्रोधी व अहंवादी पुरुष दिखाई देता है परंतु उत्तरार्ध में आत्मविश्लेषण के कारण परिवर्तित प्रतीत होता है। वह प्रभा के साथ किए गए व्यवहार की समीक्षा करता है। उपन्यासकार के शब्दों में – “आज अदालत में खड़ा करके कोई मुझसे पूछे कि सुहागरात के दिन तुम अपनी पत्नी से क्यों नहीं बोले थे? क्या केवल इसीलिए कि वह तुम्हें देखते ही गठरी बनकर नहीं बैठ गई थी और यों ही खड़ी रही थी? या सिर्फ इसलिए कि तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाएँ बहुत ऊँची थी, और तुम नारी को उनमें बाधक मानते थे कि वह तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कर दिया गया था? ……… छि: यह भी कोई ठोस कारण है, न बोलने का?”

6. संघर्षशील – उपन्यास में समर को संघर्षशील दिखाया गया है। वह भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाला युवक है और कर्म को ही धर्म मानता है। पारिवारिक दायित्व का स्मरण आते ही उसमें परिवर्तन आने लगता है। इसीलिए नौकरी के लिए हाथ-पैर मारने लगता है। उसे प्रभा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का भी अहसास होता है इसीलिए नौकरी लगते ही सबसे पहला ध्यान प्रभा की तार-तार हुई धोती पर जाता है। वह दिवाकर से 20 रु० उधार लेकर उसके लिए नई धोती लाता है।

7. संवेदनशील – समर एक संवेदनशील युवक है। मुन्नी के प्रसंग में उसका आक्रोश इसी संवेदनशीलता का प्रतीक है। प्रेस में अधिक रुपयों पर हस्ताक्षर करवाने और कम रुपए देने का मामला भी संवेदनशीलता का है। प्रभा के प्रति उसका बदलता व्यवहार भी उसके मन में भरे करुणा के सागर की ओर संकेत करता है।

इस प्रकार उपन्यासकार ने उपन्यास के दो भागों में समर को दो अलग प्रकार के व्यक्तित्व का स्वामी बताया है। उत्तरदायित्व समझ में आने पर उसमें व्यवहारिकता भी आ जाती है।

आषाढ़ का एक दिन



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