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शैशवावस्था में दी जाने वाली शिक्षा का सामान्य परिचय दीजिए।याशैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए? समझाइए।

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शैशवावस्था की शिक्षा (Infancy of Education)

शैशवावस्था विकास की प्रारम्भिक अवस्था है, इसलिए इस काल को शिक्षा का आधार भी कहें तो अनुचित नहीं होगा। फ्रॉयड के अनुसार, “मनुष्य चार-पाँच वर्षों में ही जो कुछ बनना होता है, बन जाता है। इसी प्रकार एडलर ने कहा है, “शैशवावस्था सम्पूर्ण जीवन का क्रम निर्धारित कर देती हैं।” इस अवस्था की शिक्षा में हमें निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए|

1. शारीरिक विकास का प्रयास- माता-पिता एवं शिक्षक सभी को शिशु को स्वस्थ बनाने का विशेष प्रयत्न करना चाहिए। शिशु को सन्तुलित भोजन, उपयुक्त आवास एवं  स्वस्थ क्रियाओं के लिए अवसर देना चाहिए।
2. शिशु की क्षमताओं का ज्ञान- शिशु की शारीरिक, मानसिक ५ शारीरिक विकास का प्रयास एवं भावात्मक क्षमताओं को समझकर उसी के अनुकूल शिक्षा की क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए। इस अवस्था में मॉण्टेसरी और किण्डरगार्टन शिक्षा-प्रणालियों को अपनाना चाहिए।
3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- माता-पिता और शिक्षक का कर्तव्य है। कि खिलौने आदि देते समय शिशु उनसे जो प्रश्न पूछे, उनका उत्तर देकर शिशु की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करें तथा उसके मानसिक विकास में सहायता दे।
4. शारीरिक दोषों का निराकरण- शिशु के शारीरिक दोषों को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है।
5. उचित वातावरण- शिशु के समुचित विकास के लिए यह आवश्यक है कि शिशु के लिए उचित वातावरण बनाया जाए। खेल की चीजें, ज्ञानात्मक अनुभव की वस्तुएँ, स्वतन्त्र क्रिया के लिए स्थान एव अवसर देने से शिशु को उत्तम विकास होता है।
6. भावात्मक दमन से सुरक्षा- बालक की मूल-प्रवृत्तियों एवं संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें उचित रूप में अभिव्यक्त करने के अवसर देने चाहिए।
7. भाषा का विकास- परस्पर अच्छी भाषा का प्रयोग करने से शिशु में भाषा का अच्छे ढंग से विकास होता है।
8. समाजीकरण व अच्छी आदतों का निर्माण- शिशु के साथ प्रेम, सहानुभूति व सहयोग के द्वारा व्यवहार करके उसमें भी समायोजन करने की आदत डाली जा सकती है।
9. दण्ड व भय से मुक्ति- शिशुओं के साथ दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का भय भी नहीं दिखाना चाहिए, अन्यथा उनमें भाव-ग्रन्थियाँ बन जाएँगी और उनका विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
10. आदर्शों द्वारा चरित्र-निर्माण- बड़े लोगों को चाहिए कि वे शिशु के समक्ष अच्छे आदर्श उपस्थित करें। इससे शिशुओं के चरित्र का निर्माण होता है।
11. अवस्थानुकूल शिक्षा- शिशु की शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं के अनुकूल ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण-विधि का प्रयोग करना चाहिए।
12. स्वतन्त्रता, सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार- शिशु को स्वतन्त्रता देकर उसके साथ सहानुभूति एवं सहकारिता का व्यवहार करने से उसका उत्तम विकास होता है।
13. क्रिया द्वारा शिक्षा-शिशु एक क्रिया- प्रधान प्राणी होता है। अत: उसे क्रिया द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे शिशुओं को आत्म-प्रदर्शन का भी अवसर मिलता है और कर्मेन्द्रियों का भी प्रशिक्षण होता है।
14. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- मॉण्टेसरी एवं किण्डरगार्टन पद्धतियों में शिशुओं को ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इनके शिक्षा उपकरणों तथा उपहारों का प्रयोग करके शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।



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