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Answer» हाल्टन पद्धति का अर्थ (Meaning of Dalton Method) शिक्षा की आधुनिक पद्धतियों में डाल्टन पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा की इस नयी पद्धति को अमेरिका की मिस हैलन पार्कहर्ट ने जन्म दिया है। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के डाल्टन नगर में हुआ था, इसलिए इस पद्धति को डाल्टन पद्धति के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति का पहला विद्यालय सन् 1920 में स्थापित हुआ। मिस पार्कहर्स्ट को डॉ० मॉण्टेसरी के साथ कुछ समय तक कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ था, जिसके कारण विचारों में कुछ समानता होने के कारण मॉण्टेसरी और डाल्टन पद्धति में भी कुछ समानता पाई जाती है। मॉण्टेसरी पद्धति के समान ही डाल्टन पद्धति भी बच्चों में पाई जाने वाली व्यक्तिगत विभिन्नता पर विशेष बल देती है। 11 और 12 वर्ष की आयु के बालकों के लिए डाल्टन पद्धति बड़ी उपयोगी और सफल मानी जाती है। इस पद्धति को ‘प्रयोगशाला पद्धति” भी कहा जाता है। इस पद्धति के द्वारा शिक्षा देने वाले विद्यालयों में प्रत्येक विषय की प्रयोगशालाएँ होती हैं। इनमें अनेक विषयों के अध्यापक रहते हैं और बालकों के ऊपर समय का कोई बन्धन नहीं होता। बालकों की रुचि और इच्छाओं को ध्यान में रखकर बालकों को एक सप्ताह या एक महीने का कार्य करने को दिया जाता है। जब बालक अपना काम पूरा कर लेता है तो उसे आगे काम मिल जाता है। इस प्रकार इस पद्धति में कला-शिक्षण और व्यक्तिगत शिक्षण का प्रबन्ध होता है। और बालक की स्वतन्त्रता का भी ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार “डाल्टन का तात्पर्य उस पद्धति से है जिसमें बालकों को उनकी रुचियों और इच्छाओं के अनुकूल कार्यों को, सुविधायुक्त प्रयोगशालाओं में दिए गए समय में पूरा करते हुए, अपने व्यक्तित्व का उत्तरदायित्वपूर्ण समुचित विकास करने का अवसर प्राप्त होता है।” डाल्टन पद्धति की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं ⦁ मिस हैलन पार्कहर्ट के अनुसार, “डाल्टन पद्धति एक यान्त्रिक व्यवस्था है जिसमें कि वैयक्तिक कार्य के सिद्धान्त को व्यवहार में लाया जाता है। यह शिक्षालयों का सरल एवं आर्थिक पुनसँगठन है, जहाँ शिक्षक एवं शिक्षार्थी को अधिक उपयोगी एवं समय से कार्य करने के लिए अवसर प्राप्त होते हैं।” ⦁ ग्रेव्ज (Graves) के अनुसार, “डाल्टन पद्धति में एक ऐसी ‘निर्दिष्ट कार्य व्यवस्था निहित है जिसमें कि बालक एक दिए गए समय में कार्य को पूरा करने को स्वीकार करता है और जिसमें उस कार्य को पूरा । करने के साधन एवं भागों के चयन करने का कार्य उसी पर छोड़ दिया जाता है।” डाल्टन पद्धति के उद्देश्य (Aims of Dalton Method) मिस हैलन पार्कहर्ट ने डाल्टन पद्धति के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “इस योजना का उद्देश्य बालकों को साधारण कक्षा में मिलने वाली जीवन की परिस्थितियों से बिल्कुल भिन्न परिस्थितियों में रखकर एक नए प्रकार के शैक्षिक समाज को जन्म देना तथा विद्यालय के सामाजिक जीवन का पुनर्सगठन करना डाल्टन पद्धति के सिद्धान्त (Principles of Dalton Method) डाल्टन पद्धति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं– 1. बाल-केन्द्रित शिक्षा-मनोवैज्ञानिक विचारधारा के प्रवेश से पूर्व शिक्षा में बालक का कोई स्थान नहीं था और शिक्षा देते समय बालक की व्यक्तिगत विभिन्नता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। मिस हैलेन ने इस परिपाटी को बदल दिया। उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति में बालक डाल्टन पद्धति के सिद्धान्त को प्रधान बनाया। शिक्षक को उसकी शिक्षा में सहायता देने वाला एक सहायक समझा गया जो बालक का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके बालक को उसकी योग्यता के अनुसार उसे सीखने के लिए आवश्यक सामग्री जुटाता है। मिस पार्कहर्स्ट के शब्दों में, “फलस्वरूप उसका पूर्ण स्वतन्त्रता विकास प्राकृतिक संगति से होता है और प्रयास से प्राप्त की जाने वाली शिक्षक पथ-प्रदर्शक के रूप में योग्यता वास्तविक एवं सुदृढ़ होती है।” 2. स्वशिक्षा का सिद्धान्त-कक्षा शिक्षण में बालक को यह स्वतन्त्रता नहीं होती कि वह जितनी देर चाहे एक विषय का अध्ययन में व्यक्तिगत करे, लेकिन डाल्टन पद्धति में स्वशिक्षा के सिद्धान्त की पूर्ति होती है। विशेष परीक्षा की व्यवस्था इसके अनुसार बालक जितनी देर तक चाहे एक विषय का अध्ययन कर सकता है। वह अपनी शिक्षा के लिए किसी पर पूर्णरूप से आश्रित नहीं होता। स्वाध्याय के लिए बालक को सुविधाएँ दे दी जाती हैं। प्रयोगशालाओं में सब प्रकार की सामग्री तथा पुस्तकें उपस्थित रहती हैं। वह स्वयं अध्ययन करती है। इस प्रकार प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्थायी होता है। इससे बालक में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के गुण का विकास होता है। 3. पूर्ण स्वतन्त्रता-इस पद्धति में बालकों को अपनी रुचि, योग्यता तथा गति के अनुसार कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। वह समय के बन्धन से मुक्त रहता है। इस पद्धति में इस बात की सुविधा है कि यदि किसी तीव्र बुद्धि वाले बालक ने अपना कार्य शीघ्र ही समाप्त कर लिया है तो उसे दूसरा कार्य प्रदान कर दिया जाता है। इसके विपरीत मन्दबुद्धि के बालकों को अधिक समय दिया जाता है। जब बालक काम में लगा रहता है तो अनुशासन की समस्या नहीं रहती। 4. शिक्षक पथ-प्रदर्शक के रूप में इसके अन्तर्गत यद्यपि प्रयोगशालाओं में विभिन्न विषयों के शिक्षक रहते हैं, लेकिन वे बालकों के कार्य तथा अध्ययन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते। उनका कार्य बालक का पथ-प्रदर्शन करना होता है। शिक्षक बालक को उसके कार्य से सम्बन्धित निर्देश दे देता है। वह बालकों को यह बता देता है कि उसे किन-किन पुस्तकों की सहायता लेनी चाहिए तथा किस प्रकार से काम करना चाहिए। शिक्षक बालक की कठिनाइयों को दूर करता है। बालकों के कार्य करते समय शिक्षक बालकों का निरीक्षण करता है और पास आने पर पथ-प्रदर्शन करता है। 5. सामूहिक शिक्षा- यद्यपि इस शिक्षा पद्धति में व्यक्तिगत शिक्षा पर बल दिया गया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसमें बालकों के सामाजिक पक्ष की अवहेलना की जाती है। दिन में कम-से-कम दो बार सभी बालक एक जगह एकत्र होकर पारस्परिक वाद-विवाद, परामर्श, वार्ता आदि करके विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से कार्य करते समय भी आवश्यकता पड़ने पर वे दूसरों की सम्मति ले सकते हैं। इस प्रकार बालकों को सहयोग से काम करने का अवसर मिल जाता है और उनमें सहकारिता तथा सामाजिकता की भावना का विकास होता है। 6. मनोवैज्ञानिकता- इस पद्धति में बालक सर्वप्रथम अपने सारे कार्य पर दृष्टिपात करता है। फिर वह उसको करने के लिए प्रत्येक दृष्टिकोण से प्रयत्नशील होता है। वह अपनी गलती स्वयं पकड़ता है और उसे सुधारने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार से उसका दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक हो जाता है। 7. व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान-इस पद्धति में बालक की व्यक्तिगत योग्यता की अवहेलना नहीं की जाती, बल्कि उनकी व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखकर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाता है। बालक अपनी योग्यता के अनुसार अपने कार्य का चुनाव करता है और अपनी गति से कार्य को करता है। मन्दबुद्धि के बालक को सामूहिक खिंचाव में विवश होकर नहीं बहना पड़ता। इसी प्रकार से कुशाग्र बुद्धि वाले बालक आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें कमजोर बालकों के साथ घिसटने की आवश्यकता नहीं रहती। . 8. विशेष परीक्षा की व्यवस्था- आजकल की दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली से यह पद्धति मुक्त है। इस पद्धति में साधारण परीक्षा प्रविधि को नहीं अपनाया गया है। इसमें बालक के कार्य का प्रतिदिन मूल्यांकन किया जाता है। यदि कोई बालक निश्चित समय में अपना कार्य पूरा नहीं कर सकता तो वह दूसरा कार्य नहीं ले सकता। शिक्षक प्रतिदिन के कार्य का निरीक्षण करता है और उसी की प्रकृति के आधार पर बालक को अगली कक्षा में भेजता है। पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त बालक के व्यावहारिक ज्ञान को भी महत्त्व दिया जाता है।
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