1.

‘सहशिक्षा के माध्यम से बालक-बालिका के मध्य मित्रता और समानता का भाव जागता है।’ – इस विषय पर अपने विचार विस्तारपूर्वक लिखिए।

Answer»

‘सहशिक्षा’ को लेकर हमारे समाज में कुछ दशक पूर्व तक भारी मतभेद पाया जाता था। कुछ परंपरावादी लोग बालक-बालिका की शिक्षा को अलग-अलग परिसरों में देखना चाहते थे परंतु आज स्थिति बदल गई है।

आज सहशिक्षा के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों में भी बदलाव आता जा रहा है। वास्तव में ‘लड़के-लड़कियों के एक ही परिसर में साथ-साथ पढ़ने से लड़कों में शालीनता आ जाती है। एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होने लगता है। लड़कों में कोमलता, विनय, शिष्टाचार, प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति व शालीनता आदि नारी-सुलभ गुणों का स्वयमेव समावेश हो जाता है। इसी प्रकार लड़कियाँ भी पुरुषों की वीरता, साहस, आदि गुणों को ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार के आदान

प्रदान से दोनों के व्यक्तित्व में निखार आता है। वे एक-दूसरे की प्रवृत्ति को अधिक अच्छी तरह समझने लगते हैं। उनकी अनावश्यक झिझक दूर होने लगती है, और उनका यह अनुभव उनके भावी जीवन की नौका खेने में पतवार का काम करता है। विवाह तन से अधिक मन के मिलन का नाम है। वे अपने अनुरूप जीवन-साथी का चुनाव करने में समर्थ हो जाते हैं। इस प्रकार सहशिक्षा से उनका अन्त:करण अस्वाभाविक विकृतियों से रहित होकर स्पष्ट व स्वच्छ हो जाता है, और एक सुस्थिर गृहस्थ की नींव रखने में सहायक सिद्ध होता है। इसके साथ ही उनमें स्पर्धा की भावना भी जागृत हो जाती है। दोनों एक दूसरे से आगे बढ़ने की चेष्टा करते हैं। इस पद्धति द्वारा विद्यालयों में शिक्षा का वातावरण बनता है।

सहशिक्षा के विरोधी विद्वानों का कथन है कि यौवन की दहलीज़ पर कदम रखने वाले युवकयुवतियों की जीवन-नौका प्रणय-भावना के प्रथम झोंके में ही इतनी तेजी से बह निकलती है कि विचारों के चप्पू काम ही नहीं करते। लाभ और हानि की विवेक बुद्धि से तोल कर चलना उनके लिए अति कठिन है। इसके लिए परिपक्व बुद्धि चाहिए। शिक्षा तो परिपक्व बुद्धि की कर्मशाला है। सरस्वती बुद्धि को परिपक्व बनाती है। उसमें गंभीरता आती है, व्यक्ति विनम्र हो जाता है। अतः जीवन के फल को पाल में डाल कर पकाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उसे स्वयं ही पकने दिया जाए। इस फिसलन भरे रास्ते पर विश्वामित्र जैसे तपस्वी भी फिसल गए, फिर इन अपरिपक्व बुद्धि वालों से इन परिस्थितियों में ब्रह्मचर्य की आशा करना एक भूल है। इस उम्र में तो व्यक्ति नैतिक मूल्यों को जीवन में घटाने का प्रयत्न करता है। यह परीक्षण-काल नहीं है।

जहाँ तक पारस्परिक गुणों के आदान-प्रदान का संबंध है, प्रेमचंद ने एक स्थल पर कहा है कि ‘यदि पुरुष में स्त्री के गुण आ जाएँ तो यह देवता वन जाता है, और यदि स्त्री में पुरुष के गुण आ जाएँ तो वह कुलटा बन जाती है। ‘ स्त्री और पुरुष में सब गुणों के आदान-प्रदान की आवश्यकता नहीं है दोनों में पृथक्-पृथक् गुणों का होना एक स्वाभाविक क्रिया है। उसे हम ज़बरदस्ती बदलने की चेष्टा क्यों करें? स्त्री और पुरुष की शारीरिक रचना में अंतर होने के कारण उनमें पृथक्पृथक् गुणों का विकास होना अधिक स्वाभाविक है। क्या कोई पुरुष फ्लोरैंस नाइटिंगेल बन सकता है? माँ के वक्षस्थल से फूटने वाला वात्सल्य का स्रोत पुरुष के वक्षस्थल से कैसे फूट सकता है? स्त्री की लज्जाशीलता, करुणा, कोमलता को लेकर पुरुष का काम कैसे चलेगा? और जिन पौरुषेय गुणों के आदान-प्रदान की बात कही जाती है, वे स्त्री के लिए अनिवार्य नहीं है, वास्तव में समानता एक मानवीय और सामाजिक मूल्य है तथा स्त्री और पुरुष के शरीर और स्वभाव का अंतर एक प्राकृतिक पदार्थ है। उनमें से प्रत्येक पूर्ण मनुष्य है, और दोनों मिलकर पूर्णतर बन जाते हैं। अतः सहशिक्षा एक सकारात्मक प्रणाली है।



Discussion

No Comment Found

Related InterviewSolutions