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संसद व न्यायपालिका का मौलिक अधिकारों के संशोधन को लेकर टकराव, संक्षेप में। समझाइए।

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संविधान में संशोधन विशेषकर मौलिक अधिकारों में संशोधन को लेकर न्यायपालिका का संसद से निरन्तर टकराव बना रहा है। प्रारम्भ में शंकरी प्रसाद प्रकरण में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है। सन् 1967 में गोलकनाथ केस में न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बदलते हुए नया निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती। इससे न्यायपालिका व संसद में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। संसद में गोलकनाथ केस के निर्णय को समाप्त करने के उद्देश्य से 38 व 39वाँ संविधान संशोधन किया जिन्हें 1973 में केशवानन्द भारती केस में चुनौती दी गई जिसमें यह निर्णय हुआ कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है परन्तु संविधान की मौलिक रचना में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायपालिका व संसद में टकराव होता रहा है।



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