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‘सत्य की जीत के आधार पर दुःशासन का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। या“दुःशासन में पौरुष का अहम् और भौतिक शक्ति का दम्भ है।” ‘सत्य की जीत’ के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।या‘सत्य की जीत के एक प्रमुख पुरुष-पात्र (दुःशासन) के चरित्र की विशेषताएँ बताइए। |
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Answer» प्रस्तुत खण्डकाव्य में दु:शासन एक प्रमुख पात्र है जो दुर्योधन का छोटा भाई तथा धृतराष्ट्र का पुत्र है। उसके चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं- (1) अहंकारी एवं बुद्धिहीन-दु:शासन को अपने बल पर बहुत अधिक घमण्ड है। विवेक से उसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण मानता है तथा पाण्डवों का भरी सभा में अपमान करता है। सत्य, प्रेम और अहिंसा की अपेक्षा वह पाशविक शक्तियों को ही सब कुछ मानता है- शस्त्रे जो कहे वही है सत्य, शस्त्र जो करे वही है कर्म। इसीलिए परिवारजन और सभासदों के बीच द्रौपदी को निर्वस्त्र करने में वह तनिक भी लज्जा नहीं मानता है। कहाँ नारी ने ले तलवार, किया है पुरुषों से संग्राम। (3) शस्त्र-बल विश्वासी–दुःशासन शस्त्र-बल को सब कुछ समझता है। उसे धर्म-शास्त्र और धर्मज्ञों में कोई विश्वास नहीं है। इन्हें तो वह शस्त्र के आगे हारने वाले मानता है- धर्म क्या है और क्या है सत्य, मुझे क्षणभर चिन्ता इसकी न । (4) दुराचारी-दु:शासन हमारे समक्ष एक दुराचारी व्यक्ति के रूप में आता है। वह मानवोचित व्यवहार भी नहीं जानता। वह अपने बड़ों व गुरुजनों के सामने भी अभद्र व्यवहार करने में संकोच नहीं करता। वह शास्त्रज्ञों, धर्मज्ञों व नीतिज्ञों पर कटाक्ष करता है और उन्हें दुर्बल बताता है- लिया दुर्बल मानव ने ढूँढ़, आत्मरक्षा का सरल उपाय । (5) धर्म और सत्य का विरोधी-धर्म और सत्य का शत्रु दुःशासन आध्यात्मिक शक्ति का विरोधी एवं भौतिक शक्ति का पुजारी है। वह सत्य, धर्म, न्याय, अहिंसा जैसे उदार आदर्शों की उपेक्षा करता है। (6) सत्य व सतीत्व से पराजित–दुःशासन की चीर-हरण में असमर्थता इस तथ्य की पुष्टि करती है। कि सत्य की ही जीत होती है। वह शक्ति से मदान्ध होकर तथा सत्य, धर्म एवं न्याय की दुहाई देने को दुर्बलता का चिह्न बताता हुआ जैसे ही द्रौपदी का चीर खींचने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है, वैसे ही द्रौपदी के शरीर से प्रकट होने वाले सतीत्व की ज्वाला से पराजित हो जाता है। दुःशासन के चरित्र की दुर्बलताओं या विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए डॉ० ओंकार प्रसाद माहेश्वरी लिखते हैं कि, “लोकतन्त्रीय चेतना के जागरण के इस युग में अब भी कुछ ऐसे साम्राज्यवादी प्रकृति के दु:शासन हैं, जो दूसरों के बढ़ते मान-सम्मान को नहीं देख सकते तथा दूसरों की भूमि और सम्पत्ति को हड़पने के लिए प्रतिक्षण घात लगाये हुए बैठे रहते हैं। इस काव्य में दु:शासन उन्हीं का प्रतीक है।” |
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