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उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। याउत्तर प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों के संगठन एवं शक्तियों की परस्पर तुलना कीजिए।याउत्तर प्रदेश की विधानसभा की रचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।याविधानसभा के संगठन, कार्यकाल तथा अधिकारों (शक्तियों) का उल्लेख कीजिए।याराज्य-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों और कार्यों का वर्णन कीजिए।याराज्य विधान सभा की वित्तीय शक्तियों का वर्णन कीजिए। याराज्य विधानसभा के कार्यों का वर्णन कीजिए। उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा उन उपायों का उल्लेख कीजिए जिनके द्वारा वह मन्त्रिपरिषद् को नियन्त्रित करती है।याराज्य में विधानसभा की दो शक्तियाँ लिखिए। 

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राज्य विधानमण्डल
संविधान के द्वारा भारत के प्रत्येक राज्य में एक विधानमण्डल की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 168 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल होगा, जो राज्यपाल तथा कुछ राज्यों में दो सदन से मिलकर तथा कुछ में एक संदन से बनेगा। जिन राज्यों के दो सदन होंगे, उनके नाम क्रमशः विधानसभा और विधान-परिषद् होंगे। प्रत्येक राज्य में जनता द्वारा वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सदन होता है। विधानमण्डल के इस प्रथम सदन को ‘विधानसभा’ कहते हैं। जिन राज्यों में विधानमण्डल का दूसरा सदन है, उसे ‘विधानपरिषद्” कहते हैं।

विधानसभा की रचना
विधानसभा विधानमण्डल का प्रथम और लोकप्रिय सदन है। जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहाँ पर विधानसभा विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली है।

1. सदस्य-संख्या – संविधान में राज्य की विधानसभा के सदस्यों की केवल न्यूनतम और अधिकतम संख्या निश्चित की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार राज्य की विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 और न्यूनतम संख्या 60 होगी। सम्पूर्ण प्रदेश को अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि विधानसभा का प्रत्येक सदस्य कम-से-कम 75 हजार जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे। इस नियम का अपवाद केवल असम के स्वाधीन जिले शिलाँग की छावनी और नगरपालिका के क्षेत्र, सिक्किम, गोआ, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए जनसंख्या के आधार पर इसके स्थान सुरक्षित किये गये हैं।
2. सदस्यों की योग्यताएँ – विधानसभा के सदस्य के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –
⦁    वह भारत का नागरिक हो।
⦁    उसकी आयु कम-से-कम 25 वर्ष हो।
⦁    वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर न हो।
⦁    वह पागल या दिवालिया घोषित न हो।
⦁    वह संसद या राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करता हो।
⦁    किसी न्यायालय द्वारा उसे दण्डित न किया गया हो।
3. निर्वाचन पद्धति – विधानसभा सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार प्रणाली द्वारा होता है। कम-से-कम 18 वर्ष की आयु प्राप्त राज्य का प्रत्येक स्त्री, पुरुष मतदान का अधिकारी होता है। इस प्रकार ऐसे व्यक्तियों की मतदाता सूची तैयार कर ली जाती है। निश्चित तिथि को मतदान होता है। मतगणना पश्चात् सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह समस्त चुनाव प्रक्रिया देश का निर्वाचन आयोग सम्पन्न कराता है।
4. कार्यकाल – राज्य विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राज्यपाल द्वारा इसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। यदि संकटकाल की घोषणा हो तो संसद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किसी भी अवस्था में संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की अवधि से अधिक नहीं होगा।
5. पदाधिकारी – प्रत्येक राज्य की विधानसभा के दो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं – (1) अध्यक्ष (Speaker) तथा (2) उपाध्यक्ष (Deputy Speaker)। इन दोनों का चुनाव विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों में से ही करते हैं तथा इनका कार्यकाल विधानसभा के कार्यकाल तक होता है। अध्यक्ष के वही सब कार्य होते हैं जो लोकसभा अध्यक्ष के होते हैं।

राज्य विधानसभा के कार्य और शक्तियाँ
विधानसभा राज्य की व्यवस्थापिका है। संविधान द्वारा राज्य विधानसभा को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राज्य विधानसभा की शक्तियों का अध्ययन निम्नलिखित सन्दर्भो में किया जा सकता है –

1. निर्वाचन सम्बन्धी शक्ति – राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त जिन राज्यों में द्वितीय सदन (विधान-परिषद्) की व्यवस्था है, उसके 1/3 सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
2. विधायी शक्ति – राज्य की विधानसभा को सामान्यत: उन सभी विषयों पर कानून-निर्माण की शक्ति प्राप्त होती है जो राज्य सूची और समवर्ती सूची में दिये गये हैं। यद्यपि कोई भी विधेयक कानून का स्वरूप तभी धारण करता है जब उसे दोनों सदनों की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, किन्तु इस विषय में विधानसभा की शक्तियाँ विधान-परिषद् की शक्तियों से बहुत अधिक हैं। विधान-परिषद् विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को 4 माह के लिए रोककर केवल देरी ही कर सकती है। समवर्ती सूची के विषय पर राज्यसभा द्वारा निर्मित कोई विधि यदि उसी विषय पर संसद द्वारा निर्मित विधि के विरुद्ध हो तो राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि मान्य नहीं होगी। राज्य विधानमण्डल की कानून-निर्माण की शक्ति पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध भी हैं –
(i) अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राज्य में संविधान तन्त्र भंग होने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है।
(ii) कुछ विधेयक राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किये जाने के पूर्व उन पर राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है। ऐसे विधेयक वे हैं जिनका सम्बन्ध राज्य के भीतर या विभिन्न राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य व आने-जाने की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने से होता है।
(iii) संघीय संसद अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों और समझौतों का पालन करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
3. वित्तीय शक्ति – विधानसभा को राज्य के वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त होता है। आय-व्यय का वार्षिक लेखा विधानसभा से स्वीकृत होने पर ही शासन के द्वारा आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य किया जा सकता है। वित्त विधेयक केवल विधानसभा में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। वित्तीय मामलों में विधान-परिषद् विधानसभा से अत्यधिक दुर्बल सदन है। विधानसभा से विनियोग विधेयक पारित होने पर ही सरकार संचित निधि से व्यय हेतु धन खर्च कर सकती है।
4. प्रशासनिक शक्ति – संविधान द्वारा राज्यों के क्षेत्र में भी संसदात्मक व्यवस्था स्थापित किये जाने के कारण राज्य का मन्त्रिमण्डल अपनी नीति और कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानसभा सदस्यों द्वारा मन्त्रियों से उनके विभागों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जा सकते हैं व काम रोको प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। विधानसभा कभी भी राज्य मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध ‘अविश्वास प्रस्ताव पारित करके इसे उसके पद से हटा सकती है।
5. संविधान संशोधन शक्ति – हमारे संविधान की कुछ धाराएँ ऐसी हैं कि संसद द्वारा बहुमत के आधार पर पारित प्रस्ताव को कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं द्वारा स्वीकार किया जाए। इस प्रकार राज्य विधानसभा संविधान संशोधन के कार्य में भी भाग लेती है।



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