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बालकों में पायी जाने वाली व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखते हुए अध्यापक को शिक्षण-कार्य में किन-किन व्यवस्थाओं को लागू करना चाहिए ?याव्यक्तिगत भिन्नताओं के कारण शिक्षक को मुख्य रूप से किन-किन बातों को ध्यान में । रखना चाहिए ?याशिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत भिन्नता की भूमिका एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।या“व्यक्तिगत भेदों के ज्ञान ने शिक्षा की व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया है।” आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं ?या“व्यक्तिगत भिन्नताओं के ज्ञान ने शिक्षा को अत्यधिक प्रभावित किया है।” कैसे?या“व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान शिक्षक के लिए अत्यन्त उपयोगी है।” स्पष्ट कीजिए।यापाठ्यक्रम, छात्रों के वर्गीकरण और शिक्षण-विधियों में व्यक्तिगत भिन्नताओं को कैसे समायोजित किया जा सकता है? व्याख्या कीजिए।

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व्यक्तिगत भिन्नताएँ तथा शिक्षा
(Individual Differences and Education)

आधुनिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत भिन्नताओं को विशेष महत्त्व दिया जाता है। बालक की व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं, इच्छाओं तथा मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर ही शिक्षा का आयोजन करना आवश्यक है। इस दशा में अध्यापक को अग्रलिखित बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए

1. उचित वर्गीकरण- प्रायः विद्यालय में परम्परागत विधि के अनुसार बालकों का कंक्षाओं में विभाजन किया जाता है। परन्तु यह विभाजन सर्वथा गलत है, क्योंकि विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों की आयु में ही अन्तर नहीं होता, वरन् शारीरिक व मानसिक दृष्टि से भी उनमें अन्तर होता है। अतः ऐसी दशा में बालकों की विशेषताओं के अनुसार उनको । विभाजन समरूप समूहों में किया जाना चाहिए। वर्गीकरण में मानसि योग्यताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। प्रत्येक कक्षा में प्रतिभाशाली, सामान्य तथा निम्न मानसिक क्षमताओं वाले बालकों को तीन समूहों में विभाजित किया जाना चाहिए।
2. कक्षा का सीमित आकार- वर्तमान समय में शिक्षा की हीन दशा का प्रमुख कारण कक्षा में छात्रों को आवश्यकता से अधिक संख्या में होना है। जब कक्षा में छात्रों की संख्या 50 से 60 तक होती है तो अध्यापक के लिए उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क रखना कठिन हो जाता है। अध्यापक न तो व्यक्तिगत रूप से उन बालकों की समस्याओं को समझ पाता है और न ही छात्र अध्यापक से अपनी शंकाओं का समाधान कर पाते हैं। अत: कक्षाओं में छात्रों की संख्या 20 से 30 के बीच में होनी चाहिए।
3. विस्तृत पाठ्यक्रम- बालकों की आकाँक्षाओं, रुचियों और क्षमताओं में पर्याप्त अन्तर होता है। अत: सबके लिए एक-सा पाठ्यक्रम निर्धारित करना उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं की उपेक्षा करना है। अतः पाठ्यक्रम विस्तृत और लचीला बनाया जाए, जिससे छात्र अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल विषयों का चुनाव कर सकें।
4. व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था- बालकों में मानसिक भिन्नताएँ पायी जाती हैं। अत: उन्हें सामूहिक शिक्षण द्वारा ज्ञान प्रदान करना निरर्थक है। उनकी मानसिक क्षमताओं को ध्यान में रखकर व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था करना अत्यन्त आवश्यक है। डाल्टन योजना तथा बिने योजनाओं का निर्माण इसी उद्देश्य से किया गया है।
5. गृह-कार्य- बालकों को गृहकार्य उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही प्रदान किया जाए। जो बालक प्रतिभाशाली हैं, उन्हें गृह-कार्य अधिक प्रदान किया जाए तथा मन्दबुद्धि और निर्बल शरीर वाले बालकों को कम गृह-कार्य प्रदान किया जाए।
6. शिक्षण-विधि- शिक्षण विधियों का निर्माण भी व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर ही किया जाना चाहिए। कुशाग्र बुद्धि का बालक एक मूर्ख की अपेक्षा शीघ्र सीख जाता है। अत: दोनों को शिक्षा प्रदान करने की विधियों में अन्तर होना चाहिए। मन्दबुद्धि वाले बालकों के साथ विशेष सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता है।
7. रुचियों पर ध्यान- विद्यालय में अध्ययन करने वाले बालकों की विभिन्न रुचियाँ होती हैं। अतः उनकी रुचियों के विषय में अध्यापक को अवश्य जानकारी रखनी चाहिए तथा उनके समुचित विकास की चेष्टा भी करनी चाहिए। टी० पी० नन (T: P Nunn) के अनुसार, “हमें बालकों को एक ही रुचि में ढाली गयी मशीनों का स्वरूप नहीं देना है, क्योंकि प्रत्येक की अलग-अलग सत्ता है और व्यक्तिगत सत्ता के अनुसार ही उनकी रुचियाँ हैं, अत: उनका विनाश न करके उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए।’
8. शारीरिक अयोग्यता का ध्यान- बालकों की शारीरिक समर्थताओं तथा अयोग्यताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखना आवश्यक है। कक्षा में कुछ बालक ऐसे होते हैं, जिन्हें कम सुनाई देता है तथा कुछ की दृष्टि कमजोर होती है। ऐसे बालकों को कक्षा में आगे बैठाना चाहिए। इसी प्रकार कुछ बालक शारीरिक दृष्टि से अत्यन्त निर्बल होते हैं। ऐसे बालकों के पढ़ने के बीच में पर्याप्त विश्राम दिया जाए तथा उन्हें गृह-कार्य भी कम दिया जाए तथा समय-समय पर ऐसे बालकों की डॉक्टरी जाँच कराई जाए।
9. आर्थिक और सामाजिक स्तर का ध्यान- बालकों के परिवारों के आर्थिक और सामाजिक स्तरों का उनके रहन-सहन, आचार-विचार तथा दृष्टिकोणों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। ये प्रभाव ही उनमें व्यक्तिगत भिन्नताएँ उत्पन्न करते हैं। अत: अध्यापकों को बालकों के आर्थिक और सामाजिक स्तर का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए तथा उसी आधार पर उनकी शिक्षा का आयोजन किया जाना चाहिए।
10. लिंग-भेद का ध्यान- बालक और बालिकाओं की रुचियों, आवश्यकताओं और क्षमताओं में पर्याप्त अन्तर होता है। अत: दोनों के पाठ्यक्रमों में अन्तर अवश्य होना चाहिए। शिक्षा प्रदान करते समय भी लिंग-भेद का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। उपर्युक्त विवरण द्वारा स्पष्ट है कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत भिन्नता की उल्लेखनीय भूमिका एवं महत्त्व है। यही कारण है कि हम कहते हैं कि व्यक्तिगत भेदों के ज्ञान ने शिक्षा की व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया है।



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