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बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?

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समाजशास्त्र के विकास में बौद्धिक ज्ञानोदय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। ज्ञानोदय को ‘विवेक का युग’ कहा जाता है। 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 18 वीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप के देशों में विश्व के बारे में सोचने-विचारने का एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ जिसे ज्ञानोदय कहा जाता है। इस नवीन दर्शन ने एक ओर मनुष्य को संपूर्ण ब्रह्मांड के केंद्र-बिंदु के रूप में स्थापित कर दिया तो दूसरी ओर विवेक को मनुष्य की प्रमुख विशेषता के रूप में प्रतिपादित किया।

विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मनुष्य को अपनी ही नजर में हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया। यद्यपि व्यक्ति को ज्ञान के उत्पादक एवं उपभोक्ता के रूप में प्रतिस्थापित किया गया, तथापि उन्हीं व्यक्तियों को पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया जो विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार सकते थे। इस क्षमता के न होने वाले व्यक्तियों को आदिमानव’ अथवा ‘बर्बर मानव’ कहा गया। मानव समाज चूंकि मनुष्यों द्वारा बनाया जाता है इसलिए इसका युक्तिसंगत विश्लेषण संभव है। इस प्रकार के विश्लेषण की मदद से एक समाज में रहने वाले लोग दूसरे समाज को भी समझ सकते हैं।

विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने धर्म, संप्रदाय व देवी-देवताओं के महत्त्व को कम कर दिया तथा ‘धर्मनिरपेक्षता’ ‘वैज्ञानिक सोच तथा ‘मानवतावादी सोच’ जैसी वैचारिक प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं। प्रोटेस्टेंट विद्रोह तथा वैज्ञानिक क्रांति ने 18वीं शताब्दी में जिस ज्ञानोदय के युग का प्रारंभ किया उसमें सामाजि एवं राजनीतिक समस्याओं के प्रति नवीन दृष्टि से विचार किया जाने लगा। इसी नवीन दृष्टि ने समाजशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

ज्ञानोदय द्वारा व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला तथा यह दृढ़ विश्वास विकसित हुआ कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति द्वारा मानवीय पहलुओं का अध्ययन किया जा सकता है और करना भी चाहिए। उदाहरणार्थ-ग़रीबी, जो अभी तक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में जानी जाती थी, उसे सामाजिक समस्या के रूप में देखना प्रारंभ हुआ जो कि मानवीय उपेक्षा अथवा शोषण का परिणाम है। यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि गरीबी को समझा जा सकता है और इसका निराकरण संभव है। यह धारणा भी विकसित हुई कि ज्ञान में वृद्धि से सभी बुराइयों का समाधान संभव है। इन्हीं विचारों से समाजशास्त्र का विकास हुआ। समाजशास्त्र के जनक आगस्त कॉम्टे का विश्वास था कि जिस विषय का विकास कर रहे हैं वह मानव कल्याण में योगदान देगा।



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