1.

“भारत का संविधान अर्द्ध-संघीय शासन-व्यवस्था की स्थापना करता है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।या“भारत का संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।” व्याख्या कीजिए।या“भारतीय संविधान का रूप संघात्मक है, लेकिन उसकी आत्मा एकात्मक।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।याभारत के संघवाद के पक्ष में चार तर्क दीजिए।या“भारत एक संघात्मक राज्य है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।याभारतीय संघात्मक व्यवस्था के एकात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए।याभारतीय संविधान में संघ और राज्यों के बीच शक्तियों में बँटवारे का आधार और महत्त्व बताइए।

Answer»

भारत एक विशाल तथा विभिन्नताओं वाला राज्य है। इस प्रकार के राज्य का प्रबन्ध एक केन्द्रीय सरकार द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है। इसी कारण भारत में संघीय शासन-व्यवस्था को अपनाया गया है। लेकिन इसके बावजूद भारत में संघात्मक स्वरूप सम्बन्धी विवाद पाया जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान में न तो कहीं ‘संघात्मक और न ही कहीं ‘एकात्मक’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप सम्बन्धी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए प्रो० डी० एन० बनर्जी ने उचित ही कहा है कि “भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक तथा भावना में एकात्मक है।” भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप को भली प्रकार से समझने के लिए हमें इसके दोनों पक्षों (संघात्मक तथा एकात्मक) का अध्ययन करना पड़ेगा जो कि निम्नलिखित हैं

भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ (लक्षण)

हालांकि भारतीय संविधान में ‘संघ’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन फिर भी व्यवहार में संघात्मक शासन-प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारत राज्यों का एक ‘संघ’ होगा। इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती कि भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व विद्यमान हैं, लेकिन यह भी अटल सत्य है कि भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली के भी समस्त लक्षण विद्यमान हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है –

(1) संविधान की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। संविधान और संविधान द्वारा बनाये गये कानून देश के सर्वोच्च कानून होते हैं। भारतीय संविधान में संवैधानिक सर्वोच्चता का उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी संविधान की सर्वोच्चता को इस रूप में स्वीकार किया गया है कि भारतीय राष्ट्रपति, संसद इत्यादि सभी संविधान से शक्तियाँ ग्रहण करते हैं और वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करते समय यह स्पष्ट किया जाता है कि वह संविधान की रक्षा करेंगे इसके साथ ही भारत की संसद अथवा विधानसभा द्वारा ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया जा सकता जो संविधान के विपरीत हो। अतः कहा जा सकता है कि भारत में संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है।
(2) लिखित संविधान – संघात्मक शासन का एक लक्षण संविधान का लिखित होना भी है। यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि संघात्मक राज्य का संविधान लिखित होना क्यों आवश्यक है? लिखित संविधान स्थायी होता है और इसके सम्बन्ध में बाद में मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है। चूंकि संघात्मक शासन में दोहरा शासन अर्थात्के न्द्रीय शासन तथा प्रान्तों का शासन होता है, इसलिए इसमें विवादों की सम्भावना बनी रहती है। लेकिन यदि लिखित संविधान के अनुसार प्रत्येक बात को लिखित रूप में दिया गया हो तो फिर परस्पर मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना कम-से-कम हो जाती है।
(3) कठोर संविधान – जब संवैधानिक कानून को साधारण कानून से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और संवैधानिक कानून को परिवर्तित करने हेतु साधारण कानून के निर्माण की प्रक्रिया से पृथक् तरीका अपनाया जाता है तो संविधान कठोर होता है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान भी कठोर संविधान की श्रेणी में आता है। इसमें साधारण विषयों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण संशोधन करने के लिए संघ राज्य के साथ-साथ इकाई राज्यों के सहयोग की भी आवश्यकता होती है। कठोर संविधान होने के कारण ही उसमें संशोधन प्रक्रिया जटिल है।
(4) विषयों का विभाजन – शासन के संघात्मक स्वरूप का एक लक्षण यह भी है कि इसमें विषयों का विभाजन किया जाता है। भारतीय संविधान में भी विषयों का विभाजन किया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में तीन सूचियाँ हैं—संघीय सूची जिसमें 98 विषय हैं और जिन पर संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सूची जिसमें 62 विषय हैं और जिन पर सामान्यतया राज्यों की विधानसभाएँ ही कानून बनाती हैं। समवर्ती सूची जिसके अन्तर्गत 52 विषय हैं और जिन पर संसद एवं विधानसभा दोनों ही कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय संघीय सरकार को सौंपे गये हैं।
(5) दोहरी शासन-व्यवस्था – संघात्मक शासन-प्रणाली में दोहरी शासन-व्यवस्था – (i) केन्द्र सरकार तथा (ii) प्रान्तों की सरकार होती है। भारत में केन्द्र सरकार नयी दिल्ली में है जो कि सम्पूर्ण देश को शासन-प्रबन्ध करती है और दूसरी सरकार प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में है जो प्रान्त के हितों को ध्यान में रखती है।
(6) द्विसदनात्मक विधानमण्डल – संघीय सरकार में द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था की जाती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार भारत में भी द्विसदनीय विधानमण्डल का प्रबन्ध है, जिसे संघीय संसद कहा जाता है। भारतीय संघीय संसद के उच्च सदन का नाम राज्यसभा है। संघीय संसद के निम्न (निचले) सदन का नाम लोकसभा है इसके सदस्य एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में जनसाधारण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।
(7) न्यायपालिका की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में अन्य अंगों से न्यायपालिका को सर्वोच्च स्तर दिया जाता है; क्योंकि
⦁    संविधान की रक्षा हेतु
⦁    संविधान की व्याख्या करने हेतु तथा
⦁    केन्द्र एवं राज्यों के विवादों का निपटारा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।
भारतीय संविधान में भी केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय का प्रबन्ध करके इन्हें स्वतन्त्र बनाये रखने हेतु सभी व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ये न्यायपालिकाएँ भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं।

भारतीय संविधान की एकात्मक विशेषताएँ (लक्षण)

(1) इकहरी (एकल) नागरिकता – एकात्मक सरकार में इकहरी नागरिकता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है, व्यक्ति प्रान्तों के नागरिक न होकर सम्पूर्ण देश के नागरिक होते हैं भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है अर्थात् सभी भारतीयों को चाहे वे किसी भी प्रान्त के निवासी क्यों न हों, उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एकात्मक तत्त्व का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है।
(2) विषयों के विभाजन का अभाव – सामान्यतः संघात्मक शासन-व्यवस्था में केन्द्र अथवा संघ को कुछ सीमित शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा शेष शक्तियाँ राज्यों को प्राप्त होती हैं। लेकिन भारत में इसके विपरीत शक्तियों का बँटवारा किया गया है जो शक्तिशाली केन्द्र का निर्माण करते हैं तथा राज्य अधिक स्वायत्तता का उपभोग नहीं कर सकते।
(3) भारत में समूचे राष्ट्र के लिए एक ही संविधान रखा गया है, जो पुनः एकात्मक तत्त्व है।
(4) एकल न्याय-व्यवस्था – भारत में एकीकृत न्याय-व्यवस्था लागू की गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका की भाँति भारत में दोहरी न्यायिक व्यवस्था नहीं है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय समूचे देश का एकमात्र सर्वोच्च न्यायालय है जिसके आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
(5) आपातकालीन स्थिति – भारतीय संविधान द्वारा अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति को आपातकालीनं घोषणा करने की शक्ति प्रदान की गयी है। आपातकालीन स्थिति में राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो सकती है। पायली के मतानुसार, आपातकालीन स्थिति की घोषणा भारत में संघात्मक शासन के स्वरूप को समाप्त कर देती है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आपातकाल की घोषणा होते ही बिना किसी औपचारिक संशोधन के भारतीय संविधान एकात्मक हो जाता है।
(6) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – भारतीय संघ में इकाई राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय शासन के अंग राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इन्हें उनके पद से हटाने का अधिकार भी राष्ट्रपति के ही पास है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राज्यों के राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।
(7) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में केन्द्र की सशक्त स्थिति – संविधान के कुछ उपबन्धों का संशोधन तो केन्द्रीय संसद साधारण कानून पारित करके, कुछ उपबन्धों का संशोधने सदन के दोनों सदन अपने-अपने दो-तिहाई बहुमत से तथा कुछ उपबन्धों का संशोधन संसद आधे से अधिक राज्यों की विधान-सभाओं की स्वीकृति से कर सकती है। राज्यों की विधानसभाएँ अपनी ओर से कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं कर सकतीं। इस प्रकार संविधान के संशोधन की व्यवस्था में राज्यों की तुलना में केन्द्र की स्थिति सबल है।
(8) राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने का संसद का अधिकार – भारतीय संविधान के अनुसार संसद कानून द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र को कम अथवा अधिक कर सकती है, उनके नाम बदल सकती है और दो अथवा उससे अधिक राज्यों को मिलाकर एक नवीन राज्य का गठन कर सकती है।
समीक्षा – भारतीय संविधान के उपर्युक्त एकात्मक लक्षणों को देखते हुए प्रो० के० सी० ह्वीयर का कथन है कि “भारतीय संविधान एक ऐसी शासन-प्रणाली की स्थापना करता है, जो अधिक-से-अधिक अर्द्धसंघीय (Quasi-federal) है। यह एक ऐसे एकात्मक राज्य की स्थापना करता है, जिसमें गौण रूप से कुछ संघात्मक तत्त्व हों।” इसी प्रकार जी० एन० जोशी का विचार है कि भारतीय संघ एक संघ नहीं, वरन् अर्द्धसंघ है, जिसमें एकात्मक राज्य की कतिपय महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश है।” डॉ० डी० डी० बसु के अनुसार, “भारतीय संविधान न तो नितान्त संघात्मक है और न ही एकात्मक, वरन् यह दोनों का मिश्रण है। इसी प्रकार पायली का मत है कि “भारत के संविधान का ढाँचा (रूप) संघात्मक व आत्मा एकात्मक है। कभी-कभी इन एकात्मक लक्षणों को संघात्मक व्यवस्था के उल्लंघनकारी तत्त्व की संज्ञा दे दी जाती है।



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