InterviewSolution
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भारत में मिट्टियों के वितरण एवं महत्त्व की विवेचना कीजिए।याभारत की मिट्टियों का वर्गीकरण कीजिए और उनमें से किसी एक की विशेषताओं, विस्तार और कृषि के लिए उसकी उपयुक्तता पर प्रकाश डालिए।याभारत में मिट्टी के प्रकारों का उल्लेख कीजिए तथा काली मिट्टी के वितरण तथा विशेषताओं का वर्णन कीजिए।याभारत में पायी जाने वाली प्रमुख मिट्टियों का वर्णन कीजिए। |
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Answer» मिट्टी भारतीय कृषक की अमूल्य सम्पदा है जिस पर सम्पूर्ण कृषि-उत्पादन निर्भर करता है। डॉ० बैनेट के अनुसार, “मिट्टी भू-पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है।” मिट्टियों की रचना चट्टानों के विखण्डन के फलस्वरूप होती है जिसमें अनेक रासायनिक तत्त्व एवं जीवांश मिले होते हैं। तापमान, वर्षा, वायु एवं वनस्पति का चट्टानों पर प्रभाव पड़ता है। जिससे स्थानीय मिट्टियों का निर्माण होता है। अपरदन के कारकों द्वारा मिट्टी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचा दी जाती है। मिट्टी की उर्वरता तथा समृद्ध कृषि अर्थव्यवस्था सघन जनसंख्या के पोषण में सक्षम होती है। भारत के विशाल मैदान तथा तटीय क्षेत्रों की उपजाऊ मिट्टी उन्नतशील कृषि को प्रोत्साहन देती है। भारत में मिट्टियों का वर्गीकरण एवं वितरण मिट्टियों का वर्गीकरण अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। परम्परागत दृष्टिकोण से भारतीय मिट्टियों का विभाजन कछारी, लाल, काली (रेगड़), लैटेराइट आदि में किया जाता है। भौगोलिक दृष्टिकोण से मिट्टियों को विभाजन प्राकृतिक रचना तथा उनकी विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है। इस आधार पर भारतीय मिट्टियों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जा सकता है(1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ, (2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ, (3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ एवं (4) अन्य मिट्टियाँ। (1) हिमालय पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ हिमालय पर्वतीय प्रदेश में अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। पर्वतीय मिट्टियाँ नदियों की घाटियों तथा पहाड़ी ढालों पर अधिक गहरी हैं। ढालों पर हल्की बलुई, छिद्रमय मिट्टियाँ पायी जाती हैं जिसमें जीवांश कम मात्रा में पाये जाते हैं। पर्वतीय मिट्टियों की रचना, कणों के आकार एवं कृषि-उत्पादन के दृष्टिकोण से इन्हें निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है– (i) चूना एवं डोलोमाइट से निर्मित मिट्टियाँ–हिमालय पर्वतीय प्रदेश में चूना एवं डोलोमाइट पाये जाने वाले क्षेत्रों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। वर्षा की अधिकता के कारण चूने का अधिकांश भाग इस मिट्टी के साथ बह जाता है। चूने का थोड़ा-सा अंश भूमि पर रह जाने के कारण भूमि अनुत्पादक हो जाती है। इसमें चीड़ एवं साल के वृक्ष बहुतायत में उगते हैं। (2) विशाल मैदान की मिट्टियाँ विशाल मैदान में सर्वत्र कांप (जलोढ़) मिट्टी का विस्तार है। यह मिट्टी कृषि-उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिसका विस्तार 7.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर है। इसी कारण इस क्षेत्र में सघन जनसंख्या निवास करती है। काँप मिट्टियाँ हिमालय पर्वत से निकलने वाली सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा लाई गयी अवसाद से निर्मित हुई हैं। यह मिट्टी हल्के भूरे रंग की होती है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और वनस्पति के अंशों की कमी होती है तथा सिलिका एवं चूने के अंशों की प्रधानता होती है। यह मिट्टी पीली दोमट है। कुछ स्थानों पर यह चिकनी एवं बलुई होती है। विशाल मैदान की मिट्टियों को वर्षा की भिन्नता, क्षारीय गुणों, बालू एवं चीका की भिन्नता के आधार पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता। है (i) पुरातन काँप-इसे बाँगर मिट्टी के नाम से भी पुकारा जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उन क्षेत्रों में है जहाँ नदियों की बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता है। इसमें कहीं-कहीं कंकड़ भी पाये जाते हैं। खुरदरे एवं बड़े कणों वाली मिट्टी को भूड़ कहते हैं। इस मिट्टी में गन्ना एवं गेहूँ अधिक उगाया जाता है। (ii) नवीन काँप-इसे खादर मिट्टी भी कहा जाता है। यह मिट्टी रेतीली एवं कम कंकरीली होती है। इस मिट्टी के क्षेत्रों में प्रति वर्ष बाढ़े आती हैं तथा उनके द्वारा नवीन काँप मिट्टी बिछती रहती है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की शक्ति अधिक होती है। कहीं-कहीं पर दलदल भी होती हैं। इसमें पोटाश, फॉस्फोरस, चूना एवं जीवांशों की मात्रा अधिक होती है।। (iii) डेल्टाई काँप-यह मिट्टी नदियों के डेल्टा में पायी जाती है। यहाँ नदियाँ नवीन काँप मिट्टी का जमाव करती रहती हैं; अतः यह मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ होती है। इस मिट्टी के कण बहुत ही बारीक होते हैं। जिन फसलों को अधिक जल की आवश्यकता होती है, उनमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। चावल, जूट, तम्बाकू, गेहूँ, तिलहन आदि इस मिट्टी की प्रमुख फसलें हैं। विशाल मैदान के दक्षिण-पश्चिम में मरुस्थलीय अथवा रेतीली मिट्टी पायी जाती है। वर्षा की कमी के कारण इसमें नमी की मात्रा कम होती है। जल की कमी के कारण यह मिट्टी अनुपजाऊ होती है। (3) प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियाँ प्रायद्वीपीय पठार प्राचीन एवं रवेदार चट्टानों से निर्मित हैं। प्रायद्वीपीय पठार की मिट्टियों को निम्नलिखित समूहों में बाँटा जा सकता है (i) काली मिट्टी–इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी चट्टानों के अपरदन से हुआ है; अतः इसका रंग काला है। इस मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, चूना, ऐलुमिनियम तथा जीवांशों की मात्रा अधिक होती है। यह काली, चिकनी तथा बारीक कणों से युक्त मिट्टी है, जिसमें नमी धारण करने की क्षमता अधिक है। वर्षा होने पर यह चिपचिपी-सी हो जाती है तथा सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों के द्वारा ऑक्सीजन पर्याप्त गहराई तक प्रवेश कर जाती है। भारत में काली मिट्टी का विस्तार प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर पाया जाता है। इस मिट्टी का विस्तार उत्तर में गुना (मध्य प्रदेश) से दक्षिण में बेलगाम (कर्नाटक) तक और पश्चिम में काठियावाड़ (गुजरात) से पूरब में अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) तक है। अत: गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश और उत्तरी कर्नाटक की ये प्रमुख कृषि मिट्टियाँ हैं। राजस्थान में बूंदी एवं टोंक जिलों में तथा उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के भाग में भी ये मिट्टियाँ पायी जाती हैं। विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी काले रंग की होती है। (ii) लाल व पीली मिट्टियाँ–यह मिट्टी लाल, पीले या भूरे रंग की होती है, परन्तु इसमें लाल रंग की अधिकता होती है। इस मिट्टी में लोहे का अंश अधिक होने के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिट्टी का निर्माण ग्रेनाइट, नीस व शिस्ट जैसी प्राचीन आग्नेय शैलों के टूटने से हुआ है। दक्षिण भारत में यह मिट्टी लगभग 2 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैली है। यह मिट्टी चिकने कणों से युक्त होती है। इसमें फॉस्फोरस, पोटाश, नाइट्रोजन, चूना तथा ह्यूमस की कमी पायी जाती है, किन्तु लोहा, ऐलुमिनियम व चूना यथेष्ट मात्रा में होता है। इस मिट्टी में मोटे अनाज अधिक उगाये जाते हैं, जिसमें बाजरे का स्थान सर्वोपरि है। ऊँचे ढालों पर इन मिट्टियों में मूंगफली व आलू तथा घाटियों में गन्ना भी पैदा किया जाता है। भारत में इस प्रकार की मिट्टी का विस्तार कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के दक्षिण-पूर्वी भागों, तमिलनाडु, मेघालय, ओडिशा, पश्चिम बंगाल राज्यों एवं छोटा नागपुर के पठार पर है। उत्तर प्रदेश राज्य के बाँदा, झाँसी, ललितपुर, मिर्जापुर एवं हमीरपुर जिलों में भी यह मिट्टी पायी जाती है। विशेषताएँ-(क) यह मिट्टी लाल से चॉकलेटी रंग की शुष्क तथा कुछ अनुपजाऊ होती है। (iii) लैटेराइट मिट्टी-इस मिट्टी का रंग लाल या पीला होता है। मानसूनी जलवायु की विशिष्टता के कारण ये मिट्टियाँ 200 सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा वाले ऊँचे पर्वतीय ढालों पर उत्पन्न होती हैं। यह मिट्टी सिलिका तथा लवण कणों से युक्त होती है। इसमें मोटे-मोटे कण तथा कंकड़-पत्थरों को बाहुल्य होता है। इस मिट्टी में चूना, फॉस्फोरस एवं पोटाश कम पाया जाता है, किन्तु वनस्पति का अंश यथेष्ट मात्रा में होता है। भारत में लैटेराइट मिट्टी 1.5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर फैली हुई है। वर्षा होने पर यह मिट्टी मुलायम हो जाती है, परन्तु सूखने पर कठोर हो जाती है। उर्वरकों की सहायता से इसमें चावल, गन्ना, काजू, चाय, रागी, कहवा तथा रबड़ की कृषि की जाती है। लैटेराइट मिट्टी कर्नाटक, केरल, राजमहल की पहाड़ियों, महाराष्ट्र के दक्षिणी भागों, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश, असोम तथा मेघालय के कुछ भागों में पायी जाती है। वास्तव में ये मिट्टियाँ पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट, राजमहल की पहाड़ियों, मेघालय और असोम की पहाड़ियों के ढालों पर विस्तृत हैं। विशेषताएँ—(क) यह मिट्टी ईंट के रंग जैसी लाल या गहरे भूरे रंग की होती है। (4) अन्य मिट्टियाँ (i) पीट मिट्टियाँ–आर्दै प्रदेशों में सड़ी हुई वनस्पति से पीट मिट्टी का निर्माण होता है। इनका निर्माण जैविक पदार्थों के एकत्रण से हुआ है। केरल एवं तमिलनाडु के कुछ भागों में यह मिट्टी पायी जाती है। यह मिट्टी काली, भारी एवं अम्लीय होती है। इसमें धान उगाया जाता है। (ii) दलदली मिट्टियाँ–समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों में नदियों एवं झीलों के सूखने से तथा प्राकृतिक वनस्पति के सड़ने से इन मिट्टियों का निर्माण हुआ है। इसमें लोहे एवं जीवांशों की अधिक मात्रा होने के कारण इसका रंग कुछ नीला होता है। ओडिशा एवं तमिलनाडु के दक्षिणी-पूर्वी समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों, पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन डेल्टा तथा उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती क्षेत्रों में इस मिट्टी का (iii) मरुस्थलीय मिट्टियाँ-मरुस्थलीय क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होने के कारण यहाँ ऊसर, थूर तथा कल्लर जैसी मिट्टियाँ पायी जाती हैं। यह मिट्टी लवण एवं क्षारीय गुणों से युक्त होती है। इस मिट्टी में सोडियम, कैल्सियम व मैग्नीशियम तत्त्वों की प्रधानता होती है, जिससे यह अनुपजाऊ हो गयी। है। इसमें नमी एवं वनस्पति के अंश नहीं पाये जाते। इसमें सिंचाई करके केवल मोटे अनाज ही उगाये जाते हैं। यह मिट्टी सरन्ध्र होती है। इस मिट्टी में बालू के ढेर दिखलाई पड़ते हैं। मरुस्थलीय मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा दक्षिणी पंजाब एवं हरियाणा राज्यों में पायी जाती है। विशेषताएँ—(क) इस मिट्टी में बालू के मोटे कणों की प्रधानता होती है। (iv) नमकीन या खारी मिट्टियाँ–विशाल मैदान के बहुत से भागों में मिट्टी की ऊपरी परत पर सफेद रंग की परत-सी जम जाती है जिससे भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। इसे ‘ऊसर’ या ‘कल्लर’ के नाम से पुकारा जाता है। इस मिट्टी में कैल्सियम, मैग्नीशियम तथा सोडियम लवणों की मात्रा अधिक होती है। इन लवणों की तह मिट्टी की ऊपरी परत पर जम जाती है जिसे रह’ कहते हैं। (v) वन मिट्टियाँ–वन मिट्टियों की रचना वन प्रदेश में जैविक तत्त्वों के एकत्रण से होती है। सामान्यतया ये मिट्टियाँ दो प्रकार की होती हैं–(अ) प्रथम प्रकार की मिट्टियों का निर्माण जीवांशों को अम्लीय रूप में बदलने से होता है, जिनमें मूल सामग्री की कमी होती है। (ब) इन मिट्टियों का निर्माण हल्की अम्लीय स्थिति में होता है। इनमें मूल सामग्री की अधिकता होती है जिससे भूरी मिट्टियों का निर्माण होता है। देश के वन प्रदेशों में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। |
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