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भावुक गोस्वामी जी युगल मूर्ति की ओर टकटकी लगाकर भिखारी जैसी दीन मुद्रा में देखते हुए क्या सोचने लगे?

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तुलसीदास सोचने लगे-हे रामजी, मेरा मन अभी सधा भी नहीं था कि आपने मुझे इस वैभव की भट्टी में डालकर और अधिक तपाना आरम्भ कर दिया। आप मुझ दीन-दुर्बल की ऐसी कठोर परीक्षा क्यों ले रहे हैं। मैं अति अधर्म प्राणी हूँ, तभी आप मुझे अपनी प्रतीति नहीं दे रहे हैं। एक बार मुझे अपना कहकर मेरे हृदय को आश्वस्त कर दो। फिर मेरी कोई चाह नहीं रह जाएगी। मैं आप से फिर कुछ नहीं माँगूंगा। मुझे तो आपका भरोसा और आपका सान्निध्य चाहिए। भगवान अवश्य बोलेंगे। इसी आशा में वे टकटकी लगाकर भगवान की युगल मूर्ति को निहारने लगे।



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