1.

भू-स्खलन एवं सूखा प्राकृतिक आपदाएँ हैं। इनके कारण एवं प्रभावों पर प्रकाश डालिए।

Answer»

भू-स्खलन

पर्वतीय ढालों का कोई भाग जब जल-भार की अधिकता एवं आधार चट्टानों के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तीव्रता के साथ सम्पूर्ण अथवा विच्छेदित खण्डों के रूप में गिरने लगता है तो यह घटना भू-स्खलन कहलाती है। भू-स्खलन प्रायः तीव्र गति से आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक आपदा हैं। भौतिक क्षति और जन-हानि इसके दो प्रमुख दुष्प्रभाव हैं। भारत में इस आपदा का रौद्र रूप हिमालय पर्वतीय प्रदेश एवं पश्चिमी घाट में बरसात के दिनों में अधिक देखा जाता है। वस्तुतः हिमालय प्रदेश युवावलित पर्वतों से बना है, जो विवर्तनिक दृष्टि से अत्यन्त अस्थिर एवं संवेदनशील भू-भाग है। यहाँ की भूगर्भिक संरचना भूकम्पीय तरंगों से प्रभावित होती रहती है, इसलिए यहाँ भू-स्खलन की घटनाएँ अधिक होती रहती हैं।

भू-स्खलन के कारण  

सामान्यतः भू-स्खलन का मुख्य कारण पर्वतीय ढालों या चट्टानों का कमजोर होना है। चट्टानों के कमजोर होने पर उनमें घुसा पानी चट्टानों को बाँधकर रखने वाली मिट्टी को ढीला कर देता है। यही ढीली हुई मिट्टी ढाल की ओर भारी दबाव डालती है। इस मलबे के तल के नीचे सूखी चट्टानें ऊपर के भारी और गीले मलबे एवं चट्टानों का भार नहीं सँभाल पाती हैं, इसलिए वह नीचे की ओर खिसक आती हैं और भू-स्खलन हो जाता है। पहाड़ी ढालों और चट्टानों के कमजोर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं; जैसे—
⦁    पूर्व में आया भूकम्प,
⦁    पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों से चट्टानों में उत्पन्न भ्रंश,
⦁    अत्यधिक वर्षा के कारण तीव्र भू-क्षरण,
⦁    चट्टानों के भीतर रासायनिक क्रियाओं का होना,
⦁    पहाड़ी ढालों पर वनस्पति का न होना या वन-विनाश,
⦁    पहाड़ों पर बड़े बाँध और बड़ी इमारतें बनाने से पहाड़ों पर बढ़ता दबाव आदि।

अतः भू-स्खलन की उत्पत्ति या कारणों के सम्बन्ध में निम्नलिखित बिन्दुओं को निर्दिष्ट किया जा सकता है

⦁    भू-स्खलन भूकम्पों या अचानक शैलों के खिसकने के कारण होते हैं।
⦁    खुदाई या नदी-अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार की ओर भी तेज भू-स्खलन हो जाते हैं।
⦁    भारी वर्षा या हिमपात के दौरान तीव्र पर्वतीय ढालों पर चट्टानों पर बहुत बड़ा भाग जल तत्त्व की अधिकता एवं आधार के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तेजी के साथ विखण्डित होकर गिर जाते हैं। क्योंकि जल-भार के कारण चट्टानें स्थिर नहीं रह सकती हैं; अतः चट्टानों पर दबाव की वृद्धि भू-स्खलन का मुख्य कारण होती है।
⦁    कभी-कभी भू-स्खलन का कारण त्वरित भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, अनियमित वन कटाई तथा सड़कों का अनियोजित ढंग से निर्माण भी होता है।
⦁    सड़क एवं भवन बनाने के लिए लोग प्राकृतिक ढलानों को सपाट स्थिति में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भी पहाड़ी ढालों पर भू-स्खलन होने लगते हैं।
वास्तव में, भू-स्खलन को प्रेरित करने में मुख्य भूमिका ढाल के ऊपर स्थित ‘बोझ’ तथा जल-दबाव की उपस्थिति है। पर्वतीय ढालों पर चट्टानों के बीच में भरे जल के कारण चट्टानों का आधार अस्थिर होता रहता है इसलिए चट्टानें टूटकर ढालों के सहारे नीचे खिसकती रहती हैं जो भू-स्खलन की आवृत्ति में वृद्धि करती रहती हैं; अत: मुलायम व कमजोर पारगम्य चट्टानों में रिसकर जमा हुए हिम या जल का बोझ ही पर्वतीय ढालों पर टूटने और खिसकने का प्रमुख कारण है।

सूखा

सूखा एक ऐसी आपदा है जो दुनिया के किसी-न-किसी भाग में लगभग नियमित रूप से अपना प्रभाव डालती है। यह ऐसी आपदा है जिसमें कृषि, पशुपालन तथा मनुष्य की सामान्य आवश्यकता से कम जल उपलब्ध होता है। शुष्क व अर्द्धशुष्क भागों में यह स्थिति सामान्य समझी जाती है क्योंकि जल का कम उपलब्ध होना उनकी नियति बन गया है, परन्तु पर्याप्त वर्षा या जल-क्षेत्रों में, जब वर्षा कम होती हैं या लम्बे समय तक वर्षा न हो और स्थायी जल-स्रोत भी सूखने लगे तो वहाँ सूखा एक एक भारी आपदा बन जाती है। अगर मौसम विज्ञान की सरल शब्दावली में कहें तो दीर्घकालीन औसत के आधार पर किसी स्थान पर 90 प्रतिशत से कम वर्षा होना सूखे की स्थिति मानी जाती है।

सूखा आपदा के कारण

वस्तुत: सूखा एक प्राकृतिक आपदा माना जाता है, परन्तु वर्तमान समय में मनुष्य के पर्यावरण के प्रति दोषपूर्ण व्यवहार, अनियोजित भूमि उपयोग, वन-विनाश, भूमिगत जल पर अत्यधिक दबाव एवं जलसंसाधन का कुप्रबन्ध भी सूखा आपदा के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। अतः प्राकृतिक एवं मानवकृत सूखा संकट के निम्नलिखित कारण अधिक महत्त्वपूर्ण हैं—

1. जलचक्र – वर्षा जलचक्र के नियमित संचरण, प्रवाह एवं प्रक्रिया का परिणाम है, किन्तु जब कभी जलचक्र में अवरोध उत्पन्न हो जाता है तो वर्षा के अभाव के कारण सूखा-संकट की स्थिति आ जाती है। आधुनिक विकास, जो कि जलचक्र की प्राकृतिक प्रक्रिया के विरुद्ध है, ने जलचक्र की कड़ियों को तोड़ दिया है जिसके परिणामस्वरूप अतिवृष्टि या अनावृष्टि की समस्या उत्पन्न होने लगी है।

2. वनविनाश – प्राकृतिक वनस्पति जल-संग्रहण व्यवस्था का अभिन्न अंग है। वनों एवं प्राकृतिक वनस्पति के विनाश से जलचक्र प्रक्रिया प्रभावित हुई है, क्योंकि वन एवं वनस्पति एक ओर तो वर्षा-जल के संचय में सहायक होते हैं, दूसरी ओर भूमि आर्द्रता को सुरक्षा प्रदान करती है, यही परिस्थितियाँ जलचक्र को भी नियमित रखने एवं जल-स्रोतों को सूखने से बचाती हैं। देश में हिमालय पर्वतीय क्षेत्र एवं ओडिशा का कालाहांडी क्षेत्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जहाँ सघन वनों के कारण अब से 30 वर्ष पूर्व सूखा-संकट नहीं था, किन्तु अब इन क्षेत्रों को नियमित सूखा-संकट झेलना पड़ता है।

3. भूमिगत जल का अधिक दोहन – भूमिगत जल-स्रोतों के अत्यधिक दोहन के कारण भी देश के कई प्रदेशों में सूखा को सामना करना पड़ता है। पि जल की कमी और जलाभाव के लिए वर्षा की कमी को दोषी माना जाता है किन्तु मात्र वर्षा कम होने या न होने से ही भूजल समाप्त नहीं होता। भूजल लम्बी अवधि में रिसकर एकत्र होने वाली प्रक्रिया है। यदि किसी वर्ष वर्षा न हो तो भूमिगत जल समाप्त नहीं हो सकता है लेकिन जब भूमिगत जलनिकासी की दर रिचार्ज दर से अधिक हो जाती है तो भूमिगत जल-भण्डार कम हो जाते हैं या भूजल स्तर में अत्यधिक गिरावट आ जाती है। देश के पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर: प्रदेश में इसी कारण सूखे कुओं की संख्या में तेजी आई है तथा आए वर्ष सूखने की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।

4. नदी मार्गों में परिवर्तन – सततवाहिनी नदियाँ केवल सतही पानी का प्रवाहमात्र नहीं होती अपितु यह नदियाँ भूमिगत जल-स्रोतों को भी जल प्रदान करती हैं। नदी का मार्ग बदल जाने पर निकटवर्ती भूमिगत जल-स्रोत सूखने लगते हैं। महाराष्ट्र में येरला नदी पर कृत्रिम बाँध बनाने के कारण मार्ग परिवर्तन करने से निचले क्षेत्रों के सभी कुएँ सूख गए हैं, क्योंकि इन कुओं को इसी नदी से भू-जल के माध्यम से पानी मिलता था।

5. खनन कार्य – देश के अनेक भागों में अवैज्ञानिक ढंग से किया गया खनन कार्य भी सूखा संकट का प्रभावी कारण होता है। हिमालय की तराई एवं दून घाटी क्षेत्रों में जहाँ वार्षिक वर्षा का औसत 250 सेमी से अधिक रहता है, अनियोजित खनन कार्यों के कारण जलस्रोत सूख गए हैं। दून एवं मसूरी की पहाड़ियों में चूना चट्टानें जो भूमिगत जल को एकत्र करने में सहायक होती हैं, का अत्यधिक खनन किया गया है इसलिए यहाँ चूना चट्टानें वनस्पतिविहीन हो गई हैं और अब वर्षा का जल तेजी से बह जाने के कारण भूमिगत जल रिचार्ज की दर न्यूनतम हो गई है; अतः इस क्षेत्र के अनेक प्राकृतिक जल-स्रोत सूख गए।

6. मिट्टी का संघटन – मिट्टी जैविक संघटन द्वारा बना प्रकृति का महत्त्वपूर्ण पदार्थ है जो स्वयं जल एवं नमी का भण्डार होता है। वर्तमान समय में मिट्टी का संघटन असन्तुलित हो गया है इसलिए मिट्टी की जलधारण क्षमता अत्यन्त कम हो गई है। जैविक पदार्थ (वनस्पति आदि) मिट्टी की जलधारण क्षमता में नाटकीय वृद्धि करते हैं। पानी और नमी सुरक्षा की यह विधि उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में विशेष महत्त्व रखती है। क्योंकि यहाँ मौसमी वर्षा होती है। यह मौसमी वर्षा ही सूखे मौसम में पौधों के लिए नमी प्रदान करती है। वर्तमान समय में भूमि-क्षरण के कारण मिट्टी का वनस्पति आवरण कम हो गया है, इसलिए मिट्टी में जलधारण क्षमता के अभाव के कारण सूखा-संकट का सामना अधिक करना पड़ता है।



Discussion

No Comment Found

Related InterviewSolutions