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बीमा करार यह सामान्य करार से किस तरह अलग पड़ता है ?

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बीमा का करार अन्य करारों की अपेक्षा अलग पड़ता है । बीमा का करार मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है जो निम्न हैं |

(1) सम्पूर्ण विश्वास का सिद्धान्त : बीमा, करार में सम्पूर्ण प्रमाणिकता और विश्वास अपेक्षित है । करार से सम्बन्धित जानकारी पूछे न जाने पर भी प्रत्येक पक्षकार को बताना चाहिए । इतना ही नहीं बल्कि उसे पूरी-पूरी और सही रीति से प्रस्तुत करना चाहिए । सही और पूरी जानकारी मिले तो ही बीमा उतारनेवाले को जोखिम के स्वरूप और प्रमाण के सम्बन्ध में ठीक-ठीक ख्याल आ सकता है, बीमा उतारना है या नहीं यह निश्चित हो सकता है और यदि बीमा उतारा जाये तो उसके लिए प्रीमियम की दर निश्चित हो सकती है । बीमा-करार की शर्तों को असर करे ऐसी कोई भी जानकारी जानते हुए भी नहीं दी गयी हो तो करार रद्द हो सकता है और नुकसानी की रकम की एवज़ में मुआवजा देने से इनकार किया जा सकता है ।

उदाहरण : मकान का बीमा उतारा जाए तब मकान में विस्फोटक पदार्थ का संग्रह हो तो उस सम्बन्ध में परिचित कराना आवश्यक है ।

जीवन-बीमा में बीमा उतरवानेवाले व्यक्ति को टी.बी. या कैन्सर जैसी भयंकर बीमारी हो तो उसका उल्लेख करना चाहिए ।

(2) बीमा योग्य हित का सिद्धांत : बीमा उतरवानेवाले का, जिस वस्तु या व्यक्ति का बीमा वह उतरवा रहा हो, उसमें उचित हित होना चाहिए । बीमा उचित हित अर्थात् वस्तु या मिलकत की हयाती या अस्तित्व से बीमा उतरवानेवाले का लाभ और वस्तु या मिलकत के नुकसान या नाश से बीमा उतरवानेवाले को हानि होती हो यह भी देखा जाता है ।

उदाहरण : एक मकान के लिए

  1. मकान-मालिक
  2. किरायेदार
  3. मकान गिरवी रखकर कर्ज देनेवाला ये सभी बीमा में उचित हित रखते हैं ।

एक साझेदार का दूसरे साझेदारों की जिन्दगी में बीमा उचित हित है ।
कारखाने के मालिक का अपने कर्मचारियों की जिन्दगी में बीमा उचित हित है ।
पिता का अपने पुत्र की जिन्दगी में बीमा उचित हित होता है ।

ऐसा हित न रखनेवाला व्यक्ति यदि बीमा उतरवाता है तो वह बीमा-करार कायदेसर नहीं माना जा सकता है और इसलिए बीमा कंपनी को बंधनकर्ता नहीं है । जिन्दगी के बीमा में बीमा उचित हित बीमा लेते समय होना चाहिए । जबकि अन्य बीमों के लिए बीमा लेते समय और नुकसानी के समय भी बीमा उचित हित होना चाहिए ।

(3) क्षतिपूर्ति का सिद्धांत : बीमा का करार नुकसानी के सामने रक्षण प्राप्त करने के लिए होता है । बीमा उतरवानेवाले को जो नुकसान होता है उसके प्रमाण में बीमा उतारनेवाला रकम देता है । बीमे की पॉलिसी चाहे जितनी भी रकम के लिए हो परन्तु नुकसानी की रकम से अधिक रकम नहीं मिल सकती ।

उदाहरण : एक लाख रुपये की कीमतवाली संपत्ति का एक लाख रुपये का बीमा हो । यदि संपत्ति को बीस हजार रुपये का नुकसान हुआ हो तो बीमा कंपनी बीस हजार रुपये से अधिक का दावा नहीं मंजूर करेगी । संपत्ति के मूल्य की अपेक्षा अधिक रकम का बीमा लिया जाये तो भी नुकसान से अधिक रकम का मुआवजा नहीं मिल सकता । परन्तु यदि कम रकम का बीमा लिया जाय तो वास्तविक नुकसान के अनुपात में कम मुआवजा मिलेगा ।

इस सिद्धांत के कारण गैररीतियों के किये जाने अथवा जुआ खेलने की वृत्ति पर अंकुश लग जाता है । यद्यपि यह सिद्धांत जिन्दगी – बीमा के लिए लागू नहीं किया जा सकता । कारण कि मानव-जीवन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है ।

(4) अधिकार – परिवर्तन का सिद्धांत : यह सिद्धांत क्षतिपूर्ति के सिद्धांत का पूरक है । जब बीमे के करार के अन्तर्गत क्षतिपति का मुआवजा चुकाया जाय तब ऐसी क्षतिग्रस्त वस्तु की मालिकी बीमा-कंपनी की हो जाती है और वह उसे जिस प्रकार भी उचित लगे उसका निराकरण कर सकती है ।

उदाहरण : मकान गिर जाने पर मकान-मालिक को नुकसानी की रकम बीमा कंपनी चुका देती है, परन्तु मकान के मलवे की मालिकी बीमा कंपनी की हो जाती है ।

क्षति-पूर्ति के सिद्धांत की तरह ही यह सिद्धांत भी जीवन बीमा के लिए लागू नहीं पड़ता ।



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