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बटर,सूरजरेटर जगतापहारश्री हरिश्चन्द्र कीटनाय विचार।महाराणा प्रताप जगल-जगल मारे-मारे फिरते अपनी स्वी और बच्चों को भूखस तडपते देखते थे, परतु उन्होंने लोगों की बात मानी जिन्होंने उन्हेंअधीनतापूर्वक जीते रहने की सम्मतियोकि जानते थे कि अपनी मर्यादा कीचित्ता जितनी अपने को हो सकती है, इतनी दूसरे को नहीं। एक बार एक रोमनराजनीतिक बलवाइयों के हाथ में पड़ गया। अलवाइयों ने उससे यापूर्वक पूछा,"अब तेरा किला कहाँ हैं." उसने हदय पर हाथ रखकर उत्तर दिया, "यहाँ। ज्ञानके जिज्ञासुओं के लिए यही बड़ा भारी गाद है। निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जोयुवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक-न-एक नयाअगुआ ढूँढा करते हैं और उनके अनुयायी बन सकते हैं, दे आत्म-संस्कार के कार्यमें उन्नति नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्मति आप स्थिरकरना, दूसरों की उचित बातो का मूल्य समझते हुए भी उनका अधभक्त न होनासीखना चाहिए। तुलसीदास जी को लोक में इतनी सर्वप्रियता और कीर्ति प्राप्त हुई.उनका दीर्घ जीवन इतना महत्वमय और शांतिमय रहा, सब इसी मानसिक स्वतंत्रता,निर्वद्वता और आत्म-निर्भरता के कारण। वहीं उनके समकालीन केशवदास कोदेखो जो जीवन भर विलासी राजाओं के हाथ की कठपुतली बने रहे, जिन्होंनेआत्म-स्वतंत्रता की ओर कम ध्यान दिया और अंत में बपनी बुरी गति की। एक​

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