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चिन्तन की प्रक्रिया के तत्वों के रूप में प्रतिमाओं एवं प्रतीकों का सामान्य परिचय दीजिएतथा चिन्तन की प्रक्रिया में इनके योगदान को भी स्पष्ट कीजिए। चिन्तन की प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्यय-निर्माण की प्रक्रिया को भी स्पष्ट कीजिए।याचिन्तन में प्रत्ययों तथा प्रतिमाओं की क्या भूमिका है

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प्रतिमाएँ और प्रतीक

चिन्तन एकं जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यक्ष, प्रतिमा, प्रत्यय तथा प्रतीक इत्यादि तत्त्वों का प्रहस्तन होता हैं। इन समस्त तत्त्वों की चिन्तन की प्रक्रिया में विशिष्ट भूमिका रहती है। सच तो यह है कि चिन्तन की वास्तविक प्रक्रिया इन्हीं तत्त्वों के माध्यम से चलती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ चिन्तन में इनका योगदान निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत है

(1) प्रतिमा (Images)- वास्तविक या प्रत्यक्ष वस्तु के सामने से हट जाने पर भी जब उसके गुणों का अनुभव ज्ञानेन्द्रियाँ करती हैं तो इसे हम ‘प्रतिमा’ कहते हैं। ‘प्रतिमा’ वास्तविक उत्तेजक की अनुपस्थिति में ही बनती है। व्यक्ति के भूतकालीन अनुभव प्रतिमाओं के रूप में उसके मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं। आँखों के सम्मुख रखी सुन्दर तस्वीर की सूचना दृष्टि स्नायुओं द्वारा मस्तिष्क को पहुँचायी गयी और हमने उसका प्रत्यक्षीकरण कर लिया। एकान्त में बाँसुरी की मीठी तान की सूचना मस्तिष्क को मिली और हमने उस ध्वनि का प्रत्यक्षीकरण कर लिया।
किसी ने अचानक ही तस्वीर को आँखों के सामने से हटा लिया और बाँसुरी की आवाज भी आनी बन्द हो गयी। तस्वीर सामने न होने पर भी उसकी शक्ल कुछ समय तक आँखों के सामने छायी रहती है। इसी प्रकार बाँसुरी बन्द होने पर भी उसकी आवाज कानों में कुछ समय तक गूंजती रहती है। यह बाद तक चल रही तस्वीर की शक्ल तथा बाँसुरी की गूंज प्रतिमा है। प्रतिमाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं; जैसे-दृश्य, श्रवण, स्वाद, स्पर्श तथा गन्ध से सम्बन्धित प्रतिमाएँ। मानस पटल पर प्रतिमाओं की स्पष्टता इस बात पर निर्भर करती है। कि उससे सम्बन्धित घटना या तथ्य हमारे जीवन को कितनी गहराई तक प्रभावित कर पाये। गहरे प्रभाव स्पष्ट प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं।
चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमा का योगदान– चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतिमाओं का काफी योगदान रहता है। पूर्व-अनुभव तो यथावत् मस्तिष्क में नहीं रहते, किन्तु उनके अभाव में मानसिक प्रतिमाएँ अवश्य रहती हैं। व्यक्ति की समस्त चिन्तन इन प्रतिमाओं के इर्द-गिर्द ही चलता रहता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिन्तन में प्रतिमाएँ अनिवार्य नहीं हैं और न ही ये चिन्तन में अधिक सहायता ही कर पाती हैं। लोग प्रतिमाओं के स्थान पर प्रतीकों का प्रयोग कर लेते हैं।

(2) प्रतीक (Symbols)- प्रतीक’ वास्तविक वस्तु के स्थानापन्न के रूप में कार्य करते हैं। वास्तविक वस्तु के अभाव में मस्तिष्क में उसका ध्यान दो प्रकार से आता है—प्रथम, प्रतिमा के रूप में जब मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों के सम्मुख वस्तु का स्थूल रूप ही प्रतीत हो रहा हो और द्वितीय, प्रतीक के रूप में जो उस वस्तु का सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करता हो। ज्यादातर विचार-प्रक्रिया के अन्तर्गत वस्तु की प्रतिमा मस्तिष्क में न आने पर उसके प्रतीक को प्रयोग कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ–किसी व्यक्ति या वस्तु का नाम एक प्रतीक है जो उसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म प्रतिनिधित्व कर उसका बोध करा देता है। क्रॉसिंग पर लाल बत्ती रुकने तथा हरी बत्ती चलने का प्रतीक है। किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में ये प्रतीक चिह्नों में बदल जाते हैं; जैसे—-गणित में *, , +, –, ×, ÷ ,—,= आदि के चिह्न प्रयोग में आते हैं।

चिन्तन की प्रक्रिया में प्रतीक का योगदान–प्रतीक चिन्तने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रतीक और चिह्न चिन्तन में मिलकर एक साथ कार्य करते हैं तथा इनके माध्यम से चिन्तन के किसी कार्य को सुगमता एवं शीघ्रता से पूरा कर लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर विचार (चिन्तन) करते समय एक नजदीक के रिश्तेदार ‘मोहन’ का प्रसंग आता है तो उसकी अनुपस्थिति में उसका नाम ‘मोहन’ ही प्रतीक रूप में मस्तिष्क में होगा। यूँ तो दुनिया में न जाने कितने मोहन हैं, किन्तु यहाँ उस समय ‘मोहन’ एक विशिष्ट अर्थ प्रदान करता है।

प्रतीक सरल, संक्षिप्त तथा साधारण विचारों के प्रतिनिधि होते हैं; यथा—लाल रंग से बना क्रॉस का निशान (अर्थात् ‘+’) रेडक्रॉस संस्था तथा चिकित्सकों का प्रतीक है। एक विशेष प्रकार की घण्टी/सायरन की लगातार आवाज के साथ दमकल की गाड़ी का भागना आग लगने का प्रतीक है और यह आग से सम्बन्धित चिन्तन को जन्म देता है। इसी भॉति चिह्न चिन्तन की क्रियाओं में सहायता करते हैं; यथा” का अर्थ है भाग देना तथा A का अर्थ है A X A X  A। वस्तुतः चिन्तन की प्रक्रिया प्रतीकों के माध्यम से संचालित होती है। प्रतीक व चिह्न चिन्तन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करते हैं तथा इनके प्रयोग से समय और शक्ति की काफी बचत होती है।

प्रत्यय प्रत्यय चिन्तन की पहली प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न वस्तुओं, अनुभवों, घटनाओं तथा परिस्थितियों के मध्य समानाताओं का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्यय एक प्रकार से सामान्य विचार हैं। जिनका जन्म चिन्तन द्वारा ही होता है और जो जन्म के पश्चात् पुन: चिन्तन की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योग देने लगते हैं। हमारे चारों तरफ के वातावरण में उपस्थित जितनी भी वस्तुओं का हमें बोध होता है, उतने ही प्रत्यय हमारे मस्तिष्क में बनते हैं। इस प्रकार, प्रत्ययों का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क में बने संस्कारों से होता है। हमारे मस्तिष्क में अगणित वस्तुओं के संस्कार एवं प्रत्यय निर्मित होते हैं।
उदाहरणार्थ-कागज, कलम, कुर्सी, पलंग, गाय, नारी, वृद्ध, मृत्यु, नैतिकता आदि-आदि के स्वरूप, रूप-रंग, गुण एवं आधार की एक प्रतिछाया मस्तिष्क में उपस्थित रहती है। किसी भी वस्तु या पदार्थ का एक सामान्य शब्द किसी-न-किसी प्रत्यय का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। उस शब्द को सुनते ही वस्तु की सम्पूर्ण जाति के गुण हमारे ध्यान में आ जाते हैं। प्रारम्भ में तो ये प्रत्यय अधिक विकसित नहीं होते, किन्तु व्यक्ति की आयु वृद्धि के साथ-साथ प्रत्ययों में अन्य अर्थ भी सम्मिलित होने लगते हैं और इस भाँति प्रत्यय का स्वरूप अधिक विस्तृत एवं व्यापक हो जाता है। विद्वानों के अनुसार, ये प्रत्यय चिन्तन की प्रक्रिया के आवश्यक तत्त्व हैं।

प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया मानव-मस्तिष्क में प्रत्यय का निर्माण एकदम नहीं हो जाता, अपितु प्रत्यय विशिष्ट मानसिक प्रक्रियाओं द्वारा निर्मित एवं विकसित होते हैं।
प्रत्यय निर्माण की मुख्य प्रक्रियाएँ निम्नलिखित 

(1) प्रत्यक्षीकरण (Perception)- प्रत्यय निर्माण की पहली सीढ़ी विभिन्न विषय-वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण है। प्रत्ययन (Conception) की शुरुआत ही प्रत्यक्षीकरण (Perception) से होती है। बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भ में विभिन्न वस्तुओं तथा तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है, किन्तु सिर्फ
एक वस्तु या तत्त्व का प्रत्यक्ष कर लेने (देखने) से ही प्रत्यय का निर्माण नहीं हो जाता। माना, बच्चे से एक चिड़िया देखी जिसका एक निश्चित रूप उसके मानस-पटल पर अंकित हो गया। इसके बाद वह कई प्रकार की छोटी-बड़ी, अनेक रंगों वाली, आवाजों वाली चिड़ियाँ देखता है। अनेक बार यह प्रक्रिया दोहराने पर पक्षी के स्मृति-चिह्न स्थायी एवं प्रबल होते जाएँगे। इस भॉति किसी विषय-वस्तु के प्रत्यक्षीकरण का विकास होता है और उसमें व्यापकता आती है।

(2) विश्लेषण (Analysis)- प्रत्यय निर्माण का द्वितीय चरण विशिष्ट प्रत्ययों के गुणों का विश्लेषण करना है। बच्चा जिस वस्तु का भी प्रत्यय बनाता है उसके प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में सम्बन्धित गुणों का विश्लेषण भी करता है। उदाहरणार्थ-चिड़िया का विशिष्ट रूप, उसकी चोंच की बनावट, उसका रंग, बोलने का ढंग, फुदकने तथा उड़ने का तरीका; इन सबका विश्लेषण वह मस्तिष्क से करता है।

(3) तुलना (Comparison)- विश्लेषण के बाद, बच्चा प्रत्यक्षीकरण की जाने वाली वस्तु के गुणों की तुलना, उसी जाति की अन्य वस्तुओं से करता है। वह उनके बीच समानता एवं विभिन्नता के बिन्दुओं की खोज करता है। उदाहरण के लिए सामान्य चिड़िया और मोर दोनों ही पक्षी हैं। दोनों की आकृति तो कुछ-कुछ मिलती है लेकिन मोर सामान्य चिड़िया से काफी बड़ा है, पीछे लम्बे-लम्बे सुन्दर मोर-पंख भी हैं, मोर नाचता है और नाचते समय मोर-पंखों की छत्र जैसी विशेष आकृति सामान्य पक्षियों में नहीं मिलती।।

(4) संश्लेषण (Synthesis)– विश्लेषण तथा तुलना के उपरान्त एक ही जाति के कई वस्तुओं के समान गुणों का संश्लेषण किया जाता है। एक जैसे गुणों का सामान्यीकरण करके उस वस्तु के जातीय गुणों के आधार पर सम्बन्धित वस्तु का एक रूप मस्तिष्क में धारण कर लिया जाता है।

(5) नामकरण (Naming)- किसी वस्तु का कोई विशेष रूप मस्तिष्क द्वारा धारण कर लेने के उपरान्त उसे एक खास नाम प्रदान किया जाता है। प्रत्यय का नाम उसका प्रतीक होता है।प्रत्यय निर्माण की यह प्रक्रिया बाल्यावस्था से शुरू होती है तथा नये-नये अनुभव प्राप्त करने तक चलती रहती है।



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