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Answer» डाल्टन पद्धति के दोष। (Demerits of Dalton Method) इस पद्धति के प्रमुख दोष निम्न प्रकार हैं 1.वैयक्तिक शिक्षण पर विशेष बल- इस पद्धति में वैयक्तिक शिक्षण पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, जिसके कारण बालकों में सामूहिक भावना का विकास नहीं हो पाता है। 2. शिक्षकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध- इस पद्धति के द्वारा। डाल्टन पद्धति के दोष शिक्षा देने से बालकों को तो स्वतन्त्रता मिल जाती है, लेकिन शिक्षकों की स्वतन्त्रता सीमित रह जाती है। 3. शिक्षकों के प्रभाव में कमी- इस पद्धति में बालक वैयक्तिक। रूप से अध्ययन करते हैं जिससे शिक्षकों को कम काम करना पड़ता है। और उनका प्रभाव घट जाता है। इसके अतिरिक्त बालकों पर शिक्षकों के व्यक्तित्व तथा चरित्र की छाप नहीं पड़ती, फलस्वरूप उनके व्यक्तित्व तथा चरित्र का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। 4. योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- इस पद्धति के अनुकूल शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित और योग्य शिक्षकों की कमी है। इसी कमी के कारण बालकों के शिक्षण का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं किया जा सकता। 5. विशेषीकरण पर बल- इस पद्धति में विशेषीकरण पर बल संगीत तथा विज्ञान की शिक्षा देना दिया जाता है। यह असंगत प्रतीत होता है। विशेषीकरण से बालक को असम्भव सर्वतोन्मुखी विकास नहीं हो पाता है। छोटी आयु में सर्वांगीण विकास अनैतिक कार्य होने की आशंका न होने के कारण बालक का व्यक्तित्व एकांगी रह जाता है। पुस्तकीय निर्भरता का भय 6. सामूहिक शिक्षा का अभाव इस पद्धति में वैयक्तिक शिक्षा, पाठान्तर क्रियाओं का अभाव पर इतना अधिक बल दिया जाता है कि सामूहिक शिक्षा का सर्वथा व्ययशील पद्धति अभाव हो जाता है। इस पद्धति में अभिनय, संगीत, खेल आदि के दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली माध्यम से शिक्षा नहीं दी जाती, जब कि ये सामूहिक शिक्षा के स्वरूप 7. मौखिक कार्य का अभाव- इस पद्धति में बालकों को लिखने का काम अधिक करना पड़ता है, इसलिए उन्हें मौखिक कार्य के अभ्यास के लिए अवसर नहीं मिल पाता। इसके परिणामस्वरूप बालक की भाषा को विकास भी सन्तुलित रूप में नहीं हो पाता है। 8. उत्तम पुस्तकों का अभाव डाल्टन पद्धति को कार्यान्वित करने के लिए उपयुक्त पुस्तकों का होना अति आवश्यक है, परन्तु अभी हमारे देश में भी विभिन्न विषयों पर इस पद्धति के ढंग की पुस्तकों का अभाव पाया जाता है। इसी कारण यह पद्धति भारत में कार्यान्वित नहीं की जा सकी है। 9. विषयों में सानुबन्ध का अभाव- इस पद्धति में जो शिक्षक कार्य करते हैं, वे अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनके द्वारा जो विषय पढ़ाए जाते हैं उनमें सानुबन्ध नहीं होने पाता। चूंकि प्रत्येक विषय का अध्ययन अलग-अलग होता है। इस कारण विभिन्न विषयों का समन्वय करना कठिन है। | 10. संगीत तथा विज्ञान की शिक्षा देना असम्भव-कुछ विषयों में शिक्षक को अधिक बताने की आवश्यकता होती है। ऐसे विषयों में विद्यार्थी बिना शिक्षक की सहायता के आगे नहीं बढ़ सकते। इसी कारण इस पद्धति से सब विषयों की शिक्षा नहीं दी जा सकती, विशेष रूप से संगीत और विज्ञान की शिक्षा देना तो सम्भव ही नहीं है। 10. अनैतिक कार्य होने की आशंका- इस पद्धति में शिक्षा सम्बन्धी कुछ अनैतिक कार्य होने की सम्भावना भी रहती है। इस पद्धति में यह भी आशंका रहती है कि बालक अपना कार्य किसी दूसरे विद्यार्थी की सहायता से न करा ले या उसके कार्य की नकल कर ले। चारित्रिक तथा मानसिक विकास की दृष्टि से यह कार्य अनुचित है। 12. पुस्तकीय निर्भरता का भय- इस पद्धति के द्वारा शिक्षा देने से बालक किताबी कीड़े बन जाते हैं। इसका कारण यह है कि इसमें व्यावहारिक शिक्षा का अभाव रहता है और पुस्तकीय शिक्षा की प्रधानता है। 13. पाठान्तर क्रियाओं का अभाव- इस पद्धति में पिकनिक, निरीक्षण, भ्रमण आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया है। इससे बालकों के संर्वतोन्मुखी विकास में बाधा पड़ती है। 14. व्ययशील पद्धति- इस पद्धति के अनुसार शिक्षा देने में प्रत्येक विषय के लिए एक प्रयोगशाला, विषय-विशेषज्ञ, उपयुक्त पुस्तकों तथा शिक्षण यन्त्रों की आवश्यकता होती है। इनकी व्यवस्था के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है, परन्तु भारत जैसे निर्धन देश में वर्तमान स्थितियों को देखते हुए इतनी व्ययशील पद्धति कार्यान्वित नहीं की जा सकती है। 15. दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली- इस पद्धति में वार्षिक कार्य के आधार पर बालक को अगली कक्षा में चढ़ाया जाता है। इससे बालक की सही योग्यता का मापन नहीं होता। कार्य तो वह अन्य किसी से भी करा सकता है। फिर कार्य कर लेने से यह नहीं समझा जा सकता है कि बालक ने उसे सीख लिया है और उसे धारण कर लिया है।
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