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Deepak ke jalne me aali fir bhi h jeevan ki laali

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आज सुबह जब 'कर्मनाशा' पर 'प्रेम कई तरह से आपको छूता है' शीर्षक से एक पोस्ट लगाई तो तो दुनिया जहान की और अपनी कई प्रेम कविताओं की याद हो आई। फिर सोचा कि क्या प्रेम सिर्फ कविताओं में है / कविताओं के लिए है? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रेम कहाँ, कैसा और कितना है? यह सब गुनते - बुनते काम पर निकल गया लेकिन भीतर ही भीतर 'एक विकल रागिनी' बजती रही। मौका मिलने पर बार- बार अपने भीतर झाँकता रहा और तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने भीतर की नमी की मिकदार को आँकता रहा।

जैसा कि कह चुका हूँ कुछ कवितायें / कुछ और कवितायें आद आती रहीं और 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' वाली हालत होती रही। किशोरावस्था में पढ़ी गई एक कविता हमेशा संग- साथ रही है।आज उसे ही साझा करते हैं। अच्छी तरह याद है कि यह उसी तरह 'परिभाषा' ( प्रेम की ! ) की तर याद की गई थी जैसी उन दिनों अर्थशास्त्र की विभिन्न परिभा्षायें याद की गईं थीं। वक्त बहुत बीत गया है लेकिन अब भी लगता है कि इस 'परिभाषा' में कुछ न कुछ बात जरूर है ! खैर , आइए पढ़ते - देखते हैं हिन्दी की आधुनिक कविता के सर्वाधिक प्रसिद्ध हस्ताक्षरों में से एक और 'भारत- भारती' के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त की यह कविता ' दोनो ओर प्रेम पलता है' और ऊर्दू कविता में सर्वाधिक व्यवहृत प्रतिकों 'शमा और परवाना' को 'दीपक और पतंग' के रूप में यहाँ देखते हुए अपनी अंदरूनी दुनिया की पैमाइश करें कि वहाँ की तरावट अब भी कुछ बची है कि 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम' का आलम अवतरित हो गया है ? और हो सके तो यह पड़ताल भी करें कि प्रेम कवितायें वक्त के हसीं सितम को सोखने के वस्ते कितनी कारगर सोख्ते का काम करती है?

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