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Answer» जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला, मेरे स्वागत को हर एक जेब से ख़ंजर निकला ।
तितलियों फूलों का लगता था जहाँ पर मेला, प्यार का गाँव वो बारूद का दफ़्तर निकला ।
डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर, एक आँसू का वो कतरा तो समंदर निकला ।
मेरे होठों पे दुआ उसकी ज़ुबाँ पे ग़ाली, जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला ।
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा, मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला ।
वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन, नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला ।
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई, वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।
क्या अजब है इंसान का दिल भी 'नीरज' मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला ।
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