| Answer» केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्ध श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, “संघीय व्यवस्था की सफलता और दृढ़ता संघ की विविध सरकारों के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है। इसी कारण प्रशासनिक सम्बन्धों की व्यवस्था करते हुए जहाँ राज्यों को अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्यतः स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है वहाँ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि राज्यों के प्रशासनिक तन्त्र पर संघ का नियन्त्रण बना रहे और संघ तथा राज्यों के बीच संघर्ष की सम्भावना कम-से-कम हो जाए। राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण की व्यवस्था निम्नलिखित उपायों के आधार पर की गयी है – (1) राज्य सरकारों को निर्देश – केन्द्र द्वारा राज्यों को निर्देश सामान्यतया संघीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं समझे जाते हैं, लेकिन भारतीय संघ में केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को निर्देश देने की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 256 में स्पष्ट कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे।(2) राज्य सरकारों को संघीय कार्य सौंपना – संघीय सरकार राज्य सरकारों को कोई भी कार्य सौंप सकती है। यदि राज्यों की सरकार या उसके अधिकारी उसे पूरा न करें, तो राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर राज्य शासन अपने हाथ में ले ले।
 (3) अखिल भारतीय सेवाएँ – संविधान संघ तथा राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग सेवाओं की व्यवस्था करता है, लेकिन कुछ ऐसी सेवाओं की भी व्यवस्था करता है जो संघ तथा राज्य सरकारें दोनों के लिए सामान्य हैं। इन्हें अखिल भारतीय सेवाएँ कहते हैं और इन सेवाओं के अधिकारियों पर संघीय सरकार का विशेष नियन्त्रण रहता है।
 (4) सहायता अनुदान – संघीय शासन द्वारा राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता अनुदान भी दिया जा सकता है। अनुदान देते समय संघ राज्यों पर कुछ शर्ते लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकता है।
 (5) अन्तर्राज्यीय नदियों पर नियन्त्रण – संसद को अधिकार है कि वह विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी अथवा इसके जल के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण के सम्बन्ध में व्यवस्था करे।
 (6) अन्तर-राज्य परिषद् (Inter-State Council) की स्थापना (जून 1990 ई०) – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में एक ‘अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना का प्रावधान किया गया है और राजमन्नार आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग तथा सबसे अन्त में सरकारिया आयोग, जिसने नवम्बर, 1987 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की; इन सभी ने अपनी सिफारिशों में इस बात पर बल दिया कि अन्तर- राज्य परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए, लेकिन व्यवहार में मई 1990 ई० तक अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना नहीं की गयी थी  इस परिषद् की स्थापना जून 1990 ई० में की गयी है। यह परिषद् संघीय व्यवस्था और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के सुचारु संचालन हेतु एक विचार-मंच का कार्य करेगी। परिषद् के दिन प्रतिदिन के कार्य हेतु एक स्थायी सचिवालय की स्थापना की गयी है।
 (7) संचार साधनों की रक्षा – समस्त भारतीय संघ के संचार साधनों की रक्षा का भार भी संघीय सरकार पर ही है। संघ सरकार राज्यों के अन्तर्गत हवाई अड्डों, रेलों तथा अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के आवागमन और संचार साधनों की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक आदेश दे सकती है जिनका पालन राज्य सरकारों के लिए आवश्यक है। इन आदेशों के पालन में राज्य सरकारों को जो अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा, वह संघ सरकार राज्य सरकार को देगी।
 (8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – इस सबके अतिरिक्त राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण का एक प्रमुख उपाय यह है कि प्रधानमन्त्री के परामर्श से राष्ट्रपति राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है जो वहाँ राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।
 (9) मुख्यमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के विरुद्ध आरोपों की जाँच – यदि किसी राज्य में मुख्यमन्त्री या मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार या अन्य किसी प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं तो इस प्रकार का आरोप-पत्र कार्यवाही के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है और केन्द्रीय सरकार को ही इस बात के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार है कि इन आरोपों की न्यायिक जाँच करवानी चाहिए अथवा नहीं। आरोप सिद्ध हो जाने पर केन्द्रीय सरकार सम्बन्धित मन्त्रियों को पद छोड़ने के लिए कह सकती है। पंजाब के मुख्यमन्त्री कैरो और ओडिशा के मुख्यमन्त्री वीरेन मित्रा को न्यायिक जाँच में दोषी पाये जाने पर ही त्याग-पत्र देना पड़ा था।
 (10) राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करना – इन सबके अलावा संविधान के अनुच्छेद 356 में कहा गया है कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हो जाता है तो राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या अपने विवेक से राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हुआ है अथवा नहीं; इस सम्बन्ध में निर्णय लेने की शक्ति राष्ट्रपति अर्थात् केन्द्रीय शासन को ही प्राप्त है और राष्ट्रपति शासन की यह बड़ी छड़ी राज्यों को केन्द्र के सभी निर्देश मानने के लिए बाध्य करती है। इस प्रकार प्रशासनिक क्षेत्र में राज्यों पर भारत सरकार को प्रभावदायक नियन्त्रण है, लेकिन इनके साथ यह नहीं भुला देना चाहिए कि ये प्रावधान बहुत अधिक सावधानीपूर्वक और संकटकाल में ही उपयोग के लिए हैं। सामान्यतया राज्य को कानून निर्माण और प्रशासन के सम्बन्ध में अपने निश्चित क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होगी।
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