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केंद्र तथा राज्य संबंधों में राज्यपाल की भूमिका की विवेचना कीजिए।

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राज्य का अध्यक्ष राज्यपाल होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहता है। राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए की जाती है; परन्तु वास्तविकता यह है कि वह अपनी नियुक्ति तथा पदच्युति के लिए केंद्रीय सरकार पर आश्रित रहता है। उसकी यही आश्रियता केंद्र तथा राज्य संबंधों में तनाव का कारण बन जाती है।

जब केंद्र तथा राज्य में विभिन्न दलों की सरकार हो तो राज्य सरकार यह दावा करती है कि राज्यपाल की नियुक्ति उसके परामर्श से की जाए। परन्तु केंद्रीय सरकार अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करके राज्य सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करती है।

राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार भी प्राप्त हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छा से करता है, मंत्रिमण्डल की सलाह पर नहीं। ये अधिकार महत्त्वपूर्ण भी हैं। राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने की रिपोर्ट वह अपने विवेक से करता है जिसके आधार पर केंद्र राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करता है। केंद्र ने अनेक बार उन राज्यों से जहाँ अन्य दल की सरकार थी, राज्यपाल से मनमाने ढंग से ऐसी रिपोर्ट ली और राष्ट्रपति शासन लागू कराया। राज्यपाल के ऐसे कार्यों ने केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव को बढ़ाया है। दिसम्बर 1992 की अयोध्या घटना के पश्चात् केंद्र ने भाजपा द्वारा शासित चारों राज्योंउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान में राज्यपाल की रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रपति , शासन लागू कर दिया था।

राज्यपाल का एक अधिकार जिसका प्रयोग वह अपने विवेक से करता है और राज्यपालों ने केंद्रीय सरकार के हित में इसका अत्यधिक प्रयोग किया है, वह है राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए। किसी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजना। इससे राज्य की विधायिका शक्ति प्रभावित होती है और बिल राष्ट्रपति के पास बहुत दिनों तक उसकी स्वीकृति के लिए पड़े रहते हैं। इस प्रकार केंद्र-राज्य संबंधों की दृष्टि से राज्यपाल की भूमिका अत्यन्त विवादास्पद रही है और इसने केंद्र और राज्यों के बीच कटुता और तनाव की स्थिति को बढ़ाया है।



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