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Answer»  मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा मजदूरी श्रम के प्रयोग का पुरस्कार है। इसके अन्तर्गत वे सब भुगतान सम्मिलित होते हैं जो श्रम को उसके द्वारा उत्पादन में की गयी सेवाओं के बदले में किये जाते हैं। “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो श्रमिकों को उनके (शारीरिक या मानसिक) श्रम के बदले में प्रतिफल के रूप में दिया जाता है, मजदूरी कहलाता है।” मजदूरी की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैंवाघ के अनुसार, “मजदूरी में श्रमिक के द्वारा प्राप्त समस्त आय व भुगतान सम्मिलित होते हैं।” प्रो० बेन्हम के अनुसार, किसी श्रमिक के द्वारा की गयी सेवाओं के उपलक्ष्य में, सेवायोजकों के द्वारा, समझौते के अनुसार किये जाने वाले मौद्रिक भुगतान को मजदूरी के रूप में परिभाषित किया जाता है।” प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “श्रम का वेतन मजदूरी है।” प्रो० एली के अनुसार, “श्रम की सेवाओं के लिए प्रदान की जाने वाली कीमतें ‘मजदूरी होती हैं।” आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, किसी भी प्रकार के मानव श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रतिदिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो।” अतः सभी प्रकार के मानव श्रम के बदले दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहते हैं। मजदूरी के प्रकार / भेद श्रमिकों को श्रम के बदले में जो मजदूरी प्राप्त होती है वह या तो मुद्रा के रूप में प्राप्त हो सकती है या वस्तुओं व सेवाओं के रूप में। इस आधार पर मजदूरी को दो भागों में बाँटा जा सकता है 1. नकद या मौद्रिक मजदूरी – “मुद्रा के रूप में श्रमिक को जो भुगतान किया जाता है, उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहते हैं।” प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “मौद्रिक मजदूरी उस मजदूरी को बतलाती है जो मुद्रा के रूप में दी जाती है।” यदि एक मजदूर को कारखाने में काम करने पर ₹15 प्रतिदिन मजदूरी मिलती है, तब ये  ₹15 मजदूर की नकद मजदूरी है।। 2. असल या वास्तविक मजदूरी – श्रमिक को नकद मजदूरी के रूप में प्राप्त मुद्रा के बदले में प्रचलित मूल्य पर जितनी वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त होती हैं, वे सब मिलकर उसकी असल या वास्तविक मजदूरी को सूचित करती हैं। वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती हैं; जैसे-कम कीमत पर मिलने वाला राशन, बिना किराये का मकान, पहनने के लिए मुफ्त वर्दी आदि अन्य सुविधाएँ। एडम स्मिथ ने वास्तविक मजदूरी की व्याख्या इस प्रकार की है, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवनोपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र (मौद्रिक) मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही गरीब अथवा अमीर, अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है, न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।” प्रो० मार्शल के अनुसार, “वास्तविक मजदूरी में केवल उन्हीं सुविधाओं तथा आवश्यक वस्तुओं को शामिल नहीं करना चाहिए जो सेवायोजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती हैं, बल्कि उसके अन्तर्गत उन लाभों को सम्मिलित करना चाहिए जो व्यवसाय-विशेष से सम्बन्धित होते हैं और जिसके लिए उसे कोई विशेष व्यय नहीं करना होता।” असल या वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्त्व असल मजदूरी निम्नलिखित तत्त्वों से निर्धारित होती है 1. द्रव्य की क्रय-शक्ति – द्रव्य की क्रय-शक्ति का श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। श्रमिक की असल मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि वह मजदूरी के रूप में प्राप्त द्रव्य से कितनी वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीद सकता है। यदि द्रव्य की क्रय-शक्ति अधिक है तो श्रमिक अपनी मौद्रिक आय से वस्तुओं और सेवाओं की अधिक मात्रा खरीद सकेंगे और उनकी – वास्तविक मजदूरी अधिक होगी। मुद्रा की क्रय-शक्ति कम होने की स्थिति में श्रमिक की वास्तविक मजदूरी भी कम हो जाती है, क्योंकि वे अपनी मौद्रिक आय द्वारा बाजार से बहुत कम सामान खरीद पाते हैं। अतः स्पष्ट है कि श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी मुद्रा की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है। 2. अतिरिक्त सुविधाएँ – कुछ व्यवसायों में मजदूरों को मौद्रिक मजदूरी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ एवं लाभ भी प्राप्त होते हैं; जैसे – मुफ्त सामान, सस्ता राशने, चिकित्सा सुविधा, पहनने के लिए वर्दी एवं यात्रा के लिए मुफ्त रेलवे पास आदि। इन अतिरिक्त लाभों के कारण वास्तविक मजदूरी में वृद्धि होती है। अतः किसी व्यवसाय में जितनी अधिक सुविधाएँ श्रमिक को मिलती हैं उतनी ही अधिक उनकी वास्तविक मजदूरी होती है। 3. अतिरिक्त आय की सम्भावना – यदि किसी व्यवसाय में श्रमिक अपने कार्य-विशेष के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आय में वृद्धि कर सकता है तो उस व्यवसाय में श्रमिक की असल मजदूरी अधिक मानी जाएगी। 4. कार्य की प्रकृति – वास्तविक मजदूरी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व, कार्य की प्रकृति है। कुछ व्यवसाय अधिक थका देने वाले, जोखिमपूर्ण तथा अरुचिकर होते हैं; जैसे-ईंट ढोना, लोहा पीटना, हवाई जहाज चलाना, मेहतर का कार्य आदि। ऐसे व्यवसायों में लगे हुए श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत कुछ व्यवसाय रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद एवं शान्तिपूर्ण होते हैं; जैसे-शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि का कार्य। इस प्रकार के व्यवसायों में लगे हुए लोगों की वास्तविक आय पहले प्रकार के व्यवसाय में लगे श्रमिकों की अपेक्षा अधिक होती है। 5. रोजगार को स्थायित्व – रोजगार का स्थायी होना भी श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है। यदि रोजगार स्थायी है तो मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी अधिक मानी जाएगी। तथा श्रमिक उस रोजगार में अपनी सेवाएँ देना पसन्द करेंगे। इसके विपरीत अस्थायी नियुक्ति में श्रमिक की असल मजदूरी कम होगी। इसी प्रकार मौसमी व्यवसायों में काम करने वाले श्रमिकों की असल मजदूरी अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिकों की अपेक्षा समान वेतन मिलने पर भी अधिक मानी जाती है। 6. भावी प्रोन्नति की आशा – जिन व्यवसायों में श्रमिक को उज्ज्वल भविष्य की आशा होती है, उनमें मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है। श्रमिकों को भावी उन्नति की आशा से जो सन्तोष मिलता है, वह वास्तविक आय में वृद्धि करता है। 7. काम करने की दशाएँ – कुछ व्यवसायों में काम करने की दशाएँ ठीक नहीं होतीं। उनमें स्वच्छ वायु, उचित प्रकाश व आराम की सुविधा आदि का अभाव होता है। श्रमिकों को खड़े-खड़े दूषित वातावरण में मशीनें चलानी पड़ती हैं। ऐसे व्यवसायों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत सरकारी कार्यालयों एवं जिन व्यवसायों में उचित एवं स्वच्छ जल, वायु, प्रकाश, उत्तम फर्नीचर आदि की व्यवस्था एवं मालिकों का श्रमिकों के प्रति सद्व्यवहार होता है, उन व्यवसायों में वास्तविक मजदूरी अधिक होती है। 8. काम के घण्टे एवं अवकाश की सुविधा – काम करने के घण्टे एवं छुट्टियाँ भी असल मजदूरी को प्रभावित करती हैं। जिन श्रमिकों को कम घण्टे काम करना पड़ता है और अवकाश अधिक मिलता है उन श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी, अधिक घण्टों तक काम करने वाले एवं उचित छुट्टियाँ न मिलने वालों की अपेक्षा अधिक होती है। यदि दोनों श्रमिकों को समान मौद्रिक मजदूरी मिलती है, तब काम की दशाओं में भिन्नता होने के कारण वास्तविक मजदूरी में भी भिन्नता हो जाती है। 9. आश्रितों को काम मिलने की सुविधा – जिस व्यवसाय में श्रमिकों के आश्रितों को काम मिलने की सम्भावना होती है अथवा श्रमिक के परिवार के अन्य सदस्यों को काम मिल जाती है, उने व्यवसायों में श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है। इस प्रकार के व्यवसायों में मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी श्रमिक कार्य करनी पसन्द करेगा, क्योंकि कुल मिलाकर उसकी पारिवारिक आय बढ़ जाती है। 10. प्रशिक्षण की अवधि एवं व्यय – प्रत्येक कार्य को सीखने में कुछ समय लगता है और उस पर व्यय भी करना पड़ता है। किसी काम को सीखने में कितना समय एवं धन व्यय करना पड़ता है, इसका भी वास्तविक मजदूरी पर प्रभाव पड़ता है। जिन व्यवसायों के प्रशिक्षण में अधिक लम्बा समय तथा काफी व्यय करना पड़ता है, उस व्यवसाय में काम करने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा कम मानी जाती है जिन व्यवसायों के काम सीखने में समय एवं धन का अधिक व्यय नहीं करना पड़ता। 11. व्यापार सम्बन्धी व्यय – कुछ व्यवसायों में कार्य करने वालों को अपनी कुशलता एवं योग्यता बनाये रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में व्यय करना पड़ता है; जैसे-वकील तथा शिक्षकों को पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं वे फर्नीचर आदि पर व्यय करना पड़ता है, किन्तु एक साधारण श्रमिक को इस प्रकार का व्यय नहीं करना पड़ता है। जिन व्यवसायों में व्यावसायिक व्यये अधिक होता है उनमें नकद मजदूरी अधिक होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है, उन व्यवसायों की अपेक्षा उनमें किसी प्रकार का व्यावसायिक व्यय नहीं करना पड़ता। 12. व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा – जिन व्यवसायों में सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है उन व्यवसायों में नकद मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है तथा जिन कार्यों को करने से सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है उस व्यवसाय में अधिक नकद मजदूरी होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है। 
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