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पद का भावार्थ लिखें:भज मन चरण कंवल अविनासी ॥टेक॥जेताइ दीसां धरनि गगन मां ते ताईं उठि जासी।तीरथ बरतां आन कथन्तां कहा लयां करवत कासी।या देही रो गरब ना करना माटी मा मिल जासी।यो संसार चहर री बाजी साँझ पड्या उठ जासी।कहा भयां था भगवां पहा, घर तज लयां संन्यासी।जोगी होय जुगत ना जाना उलट जनम रां फाँसी।अरज करंस अबला स्याम तुम्हारी दासी।मीरां रे प्रभु गिरधर नागर कांट्या म्हारी गांसी॥

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भावार्थ : हे मन! उस अविनाशी कृष्ण के चरण-कमलों का स्मरण कर। इस धरती और आकाश के बीच जितना जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सबका सब नष्ट हो जायेगा। तीर्थयात्रा .. करना, व्रत रखना या ज्ञान की बातें कहना और काशी में करवट लेना आदि सब बातें झूठी हैं और आडम्बर हैं। इस शरीर का घमंड नहीं करना चाहिए। यह तो नश्वर है और एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा। यह संसार तो चिड़ियों का खेल है, जो संध्या समय होते ही समाप्त हो जायेगा। इस भगवे कपड़े को पहनने से क्या लाभ और घर छोड़ संन्यास लेने से क्या फायदा, यदि योगी होकर मुक्ति को नहीं जान पाया। इस प्रकार केवल दिखावा करने से आवागमन (जीवन-मरण रूपी चक्र) की फाँसी समाप्त नहीं होती। हे श्याम! तुम्हारी दासी मीरा हाथ जोड़कर विनती कर रही है कि हे गिरिधर नागर! मेरे सांसारिक बंधनों को नष्ट कर दो।



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