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Answer» राज्यपाल की स्थिति एवं महत्त्व राज्यपाल के अधिकारों की व्याख्या करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि उसे संविधान द्वारा व्यापक अधिकार दिये गये हैं। एक प्रकार से उसे राज्य का राष्ट्रपति कहा जा सकता है। दुर्गादास बसु ने राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान बतायीं, केवल कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन शक्तियों को छोड़कर। राज्यपाल को अपने राज्य के शासन-तन्त्र को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए काफी विस्तृत अधिकार दिये गये हैं। जिन विषयों में वह अपने विवेक से काम लेता है उनमें वह मन्त्रिपरिषद् का परामर्श नहीं लेता है। इस प्रकार राज्यपाल को स्व-विवेक के आधार पर प्रयुक्त शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। विधानसभा में किसी दल का स्पष्ट बहुमत न होने पर। तथा संविधान की विफलता की स्थिति में भी उसे स्वविवेकी अधिकार प्राप्त हैं; अतः इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक शक्ति का उपयोग करता है। संकटकाल की स्थिति में वह केन्द्रीय सरकार के अभिकर्ता (Agent) के रूप में कार्य करता है। इस स्थिति में वह अपनी वास्तविक स्थिति का प्रयोग कर सकता है। इस पर भी वह केवल वैधानिक अध्यक्ष ही होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्तियाँ तो राज्य मन्त्रिपरिषद् में निहित होती हैं। राज्यपाल बाध्य है कि वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही कार्य करे। संविधान के अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार जिन बातों में संविधान द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यों को स्वविवेक से करे। उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कार्यों का निर्वहन करने में सहायता और मन्त्रणा देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी। संविधान राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियों का विशेष रूप से उल्लेख नहीं करता है। केरल, असम, अरुणाचल, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड के राज्यपाल को ही इस प्रकार की कुछ स्वविवेकी शक्तियाँ प्राप्त हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि साधारणतया राज्यपाल शासन का वैधानिक अध्यक्ष ही है और उसकी शक्तियाँ वास्तविक नहीं हैं। डॉ० एम० वी० पायली का कथन है कि “जब तक राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर कार्य करता है और विधानमण्डल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल को उसके शासनकार्य में सहायता तथा परामर्श देता है, तब तक राज्यपाल के लिए उनके परामर्श की अवहेलना करने की बहुत ही कम सम्भावना है।” महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल स्वर्गीय श्री प्रकाश ने कहा था कि “मुझे पूरा विश्वास है कि संवैधानिक राज्यपाल के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं करना होगा।’ इस प्रकार राज्यपाल का पद शक्ति व अधिकार का नहीं वरन् सम्मान व प्रतिष्ठा का है। राज्यपाल की वास्तविक स्थिति का वर्णन करते हुए डॉ० अम्बेडकर ने कहा था कि “राज्यपाल दल का प्रतिनिधि नहीं है, वरन् वह राज्य की सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधि है; अतः उसे सक्रिय राजनीति से पृथक् रहना चाहिए। वह एक निष्पक्ष निर्णायक की भाँति है। उसे देखते रहना चाहिए कि राजनीति का खेल नियमानुसार खेला जाए, उसे स्वयं एक खिलाड़ी नहीं बनना चाहिए।’ राज्य प्रशासन में राज्यपाल की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस विषय में पं० जवाहरलाल नेहरू का यह कथन उपयुक्त जान पड़ता है, “भूतकाल में राज्यपालों का महत्त्व काफी अधिक था और आगे भी बना रहेगा। ये राज्य के विभिन्न हितों और दलों के विवादों को मध्यस्थ बनकर दूर करते हैं। वह मन्त्रियों को बहुमूल्य सुझाव दे सकता है। यदि राज्य के शासन द्वारा संविधान का उल्लंघन किया जाए तो राज्यपाल उसकी सूचना तुरन्त राष्ट्रपति को दे सकता है। राज्यपाल के पद का महत्त्व संवैधानिक भी है और परम्परागत भी। इस पद का महत्त्व राज्यपाल के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।”
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