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Answer» योजना पद्धति के गुण (Merits of Project Method) 1. व्यावहारिकता- इस पद्धति के अनुसार बालक पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त नहीं करते, बल्कि वे स्वयं विभिन्न प्रकार की योजनाओं व समस्याओं को जीवन में कार्यान्वित करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार जो ज्ञान बालकों को प्राप्त होता है, वह व्यावहारिक होता है और उसकी योजना पद्धति के गुण जीवन में उपयोगिता होती है। 2. रुचिपूर्ण पद्धति- इस पद्धति के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने में बालक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, क्योंकि शिक्षा देते समय मनोवैज्ञानिक पद्धति उनकी रुचि का पूरा ध्यान रखा जाता है। इसमें बालक प्रोजेक्ट के प्रति आकर्षित, जिज्ञासु एवं उत्सुक बने रहते हैं। 3. मनोवैज्ञानिक पद्धति- यह पद्धति मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि विकास के समान अवसर इसमें बालकों की रुचि, प्रवृत्ति, इच्छा और क्षमता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इसमें रटने तथा स्मरण करने की क्रिया की अपेक्षा सोचने स्वतन्त्रता की रक्षा तथा कार्य करने की प्रवृत्ति पर बल दिया गया है। 4. श्रम का महत्त्व- बालकों की समस्याओं का समाधान करने * पाठ्य-विषयों का समन्वय के लिए शारीरिक तथा मानसिक कार्य करने पड़ते हैं। शारीरिक कार्य गृह, पाठशाला एवं समाज के करने के कारण उनके हृदय में श्रम के प्रति आदर का भाव उत्पन्न हो बीच सम्बन्ध जाता है और वे हाथ से काम करने में कोई हीनता नहीं समझते। इस सामाजिक भावना का विकास प्रकार यह पद्धति श्रम को विशेष महत्त्व प्रदान करती है। 5. मानसिक विकास- यह पद्धति निष्क्रिय रहकर ज्ञान प्राप्त करने का विरोध करती है। इस पद्धति में बालकों को स्वतन्त्र रूप से सोचने-विचारने तथा कार्य करने के अवसर प्राप्त होते हैं। इसमें बालक दूसरों से वाद-विवाद करके और परामर्श करके स्वयं निर्णय करता है। इस प्रकार इस पद्धति के द्वारा बालक की विभिन्न मानसिक शक्तियों का विकास बहुत अच्छी तरह से होता है। 6. विकास के समान अवसर- इस पद्धति में सभी बालकों को समान रूप से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है, चाहे उनकी बुद्धि तीव्र, मन्द अथवा साधारण हो। परिणामस्वरूप बालकों का समान रूप से विकास होता है। 7. आत्म-विकास का अवसर- यह पद्धति बालकों को अपने अनुभव से सीखने का अवसर देती है। कोई भी ज्ञान बालक के ऊपर थोपा नहीं जाता है, बल्कि वे कार्य करके अपने अनुभव से सीखते हैं। 8. स्वतन्त्रता की रक्षा- इस पद्धति में बालकों को अधिक-से-अधिक स्वतन्त्र रखकर शिक्षा दी जाती है। उन्हें अपनी रुचि के अनुसार काम करने, प्रोजेक्ट चुनने तथा प्रोजेक्ट का कार्यक्रम बनाने का पूरा अधिकार होता है और उन्हें कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता होती है। इस प्रकार उनके विकास में कोई बाधा नहीं आती है। 9. पाठ्य- विषयों की स्वाभाविकता-इस पद्धति में बालक को पाठ्य-विषयों का ज्ञान स्वाभाविक परिस्थितियों में कराया जाता है, जिससे जीवन और कार्य में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इससे ज्ञान की स्वाभाविकता बनी रहती है। जीवन से सम्बन्धित हो जाने पर बालक रुचिपूर्वक कार्य को पूरा करता है और बालक में विधिपूर्वक कार्य करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। 10. पाठ्य-विषयों का समन्वयं- इस पद्धति में बालकों को सभी पाठ्य-विषय अलग-अलग करके नहीं पढ़ाए जाते। पाठ्यक्रम के समस्त विषय समन्वित रूप से प्रस्तुत किए जाते हैं। किसी विशेष समस्या को हल करने में बालक अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इससे बालकों को ज्ञान की एकता का अनुभव होता है और ज्ञान संगठित होकर उनके द्वारा आत्मसात किया जाता है। 11. गृह, पाठशाला एवं समाज के बीच सम्बन्ध- इस पद्धति की शिक्षाविधि ऐसी है कि गृह, पाठशाला एवं समाज तीनों में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। तीनों सम्बद्ध रूप से बालक की शिक्षा में भाग लेते हैं। विद्यालय में जो शिक्षा बालक ग्रहण करते हैं, उसे गृह एवं समाज में कार्यान्वित करते हैं। इसके साथ-साथ गृह और समाज में प्राप्त अनुभवों के आधार पर बालक विद्यालय में प्रोजेक्ट का निर्माण करते हैं। 12. चरित्र का विकास- इस पद्धति के द्वारा बालकों का चारित्रिक विकास होता है। यह सत्यम् शिवम सुन्दरम्’ की भावना का अनुभव करते हुए विश्व का कल्याण करने में समर्थ होते हैं। 13. सामाजिक भावना का विकास- इस पद्धति में बालकों को दूसरों के सहयोग से कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। इससे उनमें सामाजिकता की भावना का विकास होता है। इसके साथ ही उनमें नागरिकता की भावना का भी विकास होता है। वह अपने उत्तरदायित्व को समझते हैं और एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं।
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