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शिक्षा की योजना पद्धति (Project Method) से आप क्या समझते हैं? इस पद्धति के मुख्य सिद्धान्तों का भी उल्लेख कीजिए।याप्रोजेक्ट विधि के मुख्य सिद्धान्त क्या हैं?

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आधुनिक शिक्षा पद्धतियों में प्रोजेक्ट या योजना पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस पद्धति के प्रवर्तक जॉन डीवी के शिष्य अमरीकन शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक थे। ये कोलम्बिया विश्वविद्यालय के अध्यापकों के कॉलेज में शिक्षाशास्त्र के प्रोफेसर थे। डीवी (Dewey) के प्रयोजनवाद के सिद्धान्तों के आधार पर ही इन्होंने योजना शिक्षा-पद्धति का निर्माण किया। प्रारम्भ में इस पद्धति का प्रयोग कृषि के कार्यों में किया जाता था, परन्तु कालान्तर में इस पद्धति का प्रयोग अन्य क्षेत्रों में भी होने लगा। इस पद्धति में पाठ्य-विषय का अध्ययन कराने के स्थान पर उसे प्रत्यक्ष रूप से समझाया जाता है।

योजना पद्धति का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Project Method)

योजना पद्धति के जनक किलपैट्रिक का कथन है कि कार्य दो प्रकार से किया जाता है—योजना बनाकर और बिना योजना के। योजना वाले कार्यों में भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो जीवन की समस्या से सम्बन्धित होते हैं और कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जिनका जीवन की समस्याओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता। योजना शिक्षा पद्धति के अनुसार बालक जो कार्य करते हैं, वे पूर्व निर्धारित होते हैं और जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित होते हैं; जैसे—विद्यालय में सूत कातती हुई लड़कियों से यदि कह दिया जाए कि उस सूत से उनके लिए साड़ियाँ बनवाई जाएँगी तो वे और मन लगाकर तीव्र गति से कार्य करेंगी। इस प्रकार कार्यों को उद्देश्यपूर्ण, सार्थक, रोचक और स्वाभाविक बनाया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि योजना सोद्देश्य, स्वाभाविक, सार्थक एवं रुचिपूर्ण कार्य का आयोजन है। योजना शब्द की प्रमुख परिभाषाओं का विवरण निम्नलिखित है—

⦁    किलपैट्रिक के अनुसार, “योजना वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाए।”

⦁    रायबर्न के अनुसार, “योजना वह उद्देश्यपूर्ण कार्य है जिसे सहयोग तथा सद्भावना से बालक स्वेच्छापूर्वक पूरा करने का प्रयास करते हैं।”
⦁    थॉमस और लैंग के अनुसार, “योजना इच्छानुसार ऐसा कार्य है, जिसमें रचनात्मक प्रयास आपका विचार हो और जिसका कुछ साकार परिणाम हो।”
⦁    बेलार्ड के अनुसार, “योजना वास्तविक जीवन का एक भाग है जो कि विद्यालय में प्रयोग किया जाता
⦁    स्टीवेन्सन के अनुसार, “योजना एक समस्यामूलक कार्य है जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के ।अन्तर्गत पूर्णता को प्राप्त करता है।”
⦁    किलपैट्रिक की संशोधित परिभाषा, “योजना सोद्देश्य अनुभव की कोई इकाई, सोद्देश्य क्रिया का कोई उदाहरण है जहाँ पर प्रभावशाली प्रयोजन एक आन्तरिक प्रवृत्ति के रूप में कार्य के उद्देश्य को निर्धारित करता है, क्रिया का पथ-प्रदर्शन करता है और उसे प्रेरणा देता है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि “योजना एक जीवन अनुभव है जो एक प्रबल इच्छा से प्रेरित होता है और इस इच्छा का प्रयोग ही योजना पद्धति का आधार है।”

योजना पद्धति के सिद्धान्त (Principles of Project Method)

योजना पद्धति एक नई शिक्षा-पद्धति है, जिसका निर्माण अमेरिका में शिक्षा के क्षेत्र में प्रचलित प्राचीन परम्पराओं की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ है। यह पद्धति ‘करके सीखने’ (Learning by doing) के साथ-साथ रहकर सीखने’ (Learning by living) परे भी बल देती है। इस पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं|

1. उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त- इस पद्धति के अनुसार बालकों के सम्मुख कोई भी कार्य समस्या के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है और उसे पूरा करने में कोई उद्देश्य निहित रहता है। उद्देश्य के अभाव में योजना निरर्थक हो जाती है, क्योंकि कोई भी कार्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया जाता है। जब बालक के सामने कोई उद्देश्य स्पष्ट होता है तो वह उत्तेजित होकर मन लगाकर काम करता है उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त है। इसका परिणाम यह होता है कि बालक कम समय में अधिक ज्ञान क्रियाशीलता का सिद्धान्त प्राप्त कर लेते हैं।
2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- बालक स्वभावतः क्रियाशील होते हैं, इसलिए यह पद्धति बालक की क्रियाशीलता का सदुपयोग । करने में विश्वास करती है। इस पद्धति में बालकों को क्रिया द्वारा शिक्षा दी जाती है, क्योंकि जो भी ज्ञान स्वयं कार्य करके प्राप्त किया जाता है, वह अधिक स्थायी होता है, इसलिए जहाँ तक सम्भव हो सके बालक को व्यावहारिक क्रिया के आधार पर शिक्षा देनी चाहिए, जिससे बालक उत्साहपूर्वक सीख सके।
3. अनुभव का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालक अनुभवों को अर्जित करके शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस पद्धति के द्वारा बालक को ऐसे अनुभव प्रदान किए जाते हैं, जो उसके जीवन में काम आ सकें। यह अनुभव वे कार्य के द्वारा प्राप्त करते हैं। इससे बालक कार्य का अनुभव, सहयोग का अनुभव, सामाजिक सम्बन्धों का अनुभव और अन्य विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है।
4.स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालक को कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। बालकों को कार्य चुनने की पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उन्हें इतना उत्साहित करना चाहिए कि वे कार्य का प्रस्ताव स्वयं रखें। विद्यालय का समस्त कार्यक्रम उनके प्रस्ताव के अनुकूल होना चाहिए। शिक्षकों को उन्हें किसी भी कार्य को करने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए।
5. वास्तविकता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालकों से शैक्षिक कार्य वास्तविक और स्वाभाविक परिस्थितियों में कराए जाते हैं। बालकों के सामने काल्पनिक समस्याएँ न रखकर वास्तविक समस्याएँ प्रस्तुत की जानी चाहिए। वास्तविक परिस्थितियों में काम करने से जीवन और कार्य में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
6. उपयोगिता का सिद्धान्त- इस पद्धति में बालकों से वही कार्य कराए जाते हैं, जिनमें उनका स्वार्थ हो और जो उनके भावी जीवन में सहायक बन सकें। उपयोगी कार्यों में बालक की रुचि होती है और वह उत्साहपूर्वक कार्य को पूरा करता है। बालक ऐसी समस्याओं का समाधान करने में कोई रुचि नहीं रखता, जो उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित नहीं होते।
7. सामाजिकता का सिद्धान्त- यह पद्धति इस तथ्य पर विशेष बल देती है कि बालकों में शिक्षा द्वारा सामाजिक भावना का विकास करना चाहिए। इसलिए इस पद्धति में सामूहिक कार्यों, सामाजिक उत्तरदायित्वों तथा सामाजिक सम्बन्धों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
8. सानुबन्यता का सिद्धान्त- यह पद्धति ज्ञान की एकता में विश्वास करती है। इसलिए इस पद्धति के अन्तर्गत इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है कि विभिन्न विषयों को एक-दूसरे से सम्बन्धित करते हुए पढ़ाना चाहिए। प्रायः एक ही योजना के द्वारा विभिन्न विषयों की शिक्षा बालकों को दे दी जाती है।



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