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संकलित दोहों की सप्रसंग व्याख्याएँ।को छूट्यौ इहि जाल परि, कत कुरंग अकुलात।ज्यौं-ज्यौं सुरझि भज्यौ चहत, त्यौं त्यौं उरझत जात॥

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कठिन शब्दार्थ- छूट्यौ = छूटा है, मुक्त हुआ है। इहि = इस। जाले = सांसारिक मोह बंधन। कत = क्यों। कुरंग = हरिण। अकुलात = छटपटाता है। सुरझि = सुलझ कर। भज्यौ चहत = भागना चाहता है। त्य-त्यौं = उतना ही। उरझत जात = उलझता जाता

संदर्भ तथा प्रसंग- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि बिहारी लाल के दोहों से लिया गया है। कवि सांसारिक विषयों में लिप्त लोगों की दशा पर खेद व्यक्त करते हुए, उन पर व्यंग्य कर रहा है कि इन विषयों के जाल में जो एक बार हँस गया, उसका इनसे छूट पाना बड़ा कठिन होता है।

व्याख्या- कवि सांसारिक बन्धनों में जकड़े हुए लोगों को संबोधित करते हुए कह रहा है-अरे बावले हरिण। तू जिस जाल में फंस गया है उससे आज तक कौन छूट पाया है। तू व्यर्थ छटपटा रहा है। इस जाल में जो जीव एक बार फँस जाता है, वह जितना-जितना छूटने का प्रयत्न करता है, उतनी ही और इसमें फंसता चला जाता है।

अन्योक्ति के अनुसार अर्थ है- अरे सांसारिक सुखभोगों के जाल में फंसे पड़े मनुष्य ! इन झूठे सुखों के जाल में फंस जाने पर, इनसे छूट पाना असम्भव हो जाता है। इनके दुखमय परिणामों से त्रस्त होकर, अब तू छूटने को छटपटा रहा है, तेरा यह प्रयास व्यर्थ है। तू जितना ही इनसे छूटने का प्रयत्न करेगा, ये तुझे उतना ही और उलझाते चले जाएँगे।

विशेष-
(i) कवि ने सांसारिक विषयों की असारता की ओर संकेत करते हुए, मनुष्यों को इनसे दूर रहने की चेतावनी दी है।
(ii) ‘जाल में फंसे हरिण’ की दशा से विषय-जाल में पड़े मनुष्यों की तुलना बड़ी सटीक है। हरिण जाल से छूटने के लिए जितछटपटाता है, जाल उसे उतना ही कसता चला जाता है।
(iii) कवि ने संकेत दिया है कि मनुष्य को संयमित जीवन बिताते हुए और भगवान पर आस्था रखते हुए जीवन बिताना चाहिए।
(iv) कवि माया पर अधिकार और प्रतीकात्मक शैली की कुशलता का परिचय कराया है।
(v) दोहे में अन्योक्ति, पुनरुक्ति तथा अनुप्रास का सही प्रयोग है।



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