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Answer» स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने की विधियाँ नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित विधियों को अपनाया गया है 1. विशेषाधिकार- विहीन समाज की स्थापना–स्वतन्त्रता की सुरक्षा उसी समय सम्भव है। जबकि समाज में कोई वर्ग अथवा समूह विशेषाधिकारों से युक्त नहीं होता है तथा सभी व्यक्ति एक-दूसरे के विचारों का आदर तथा सम्मान करते हैं। व्यक्तियों में ऊँच-नीच की भावना स्वतन्त्रता का हनन करती है। यदि समाज में कोई विशेषाधिकारयुक्त वर्ग होता है तो वह अन्य वर्गों के विकास में बाधक बन जाता है तथा दूसरे वर्ग अपनी सामाजिक व राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं कर सकते हैं। 2. अधिकारों की समानता- अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता के द्योतक हैं। जिस समाज में व्यक्तियों को सामाजिक व राजनीतिक अधिकार प्रदान नहीं किए जाते हैं, उस समाज के नागरिक स्वतन्त्रता का वास्तविक उपभोग नहीं कर पाते हैं। यदि अधिकारों में समानता नहीं होगी तो स्वतन्त्रता का उपभोग नागरिक नहीं कर सकेंगे। 3. राज्य द्वारा कार्यों पर नियन्त्रण– यदि नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा करनी है तो राज्य द्वारा नागरिकों के कार्यों पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए। राज्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को ऐसे कार्यों को करने से रोक दे जो दूसरों के हितों का उल्लंघन करते हैं। 4. लोक- हितकारी कानूनों का निर्माण-कभी- कभी सरकार वर्ग-विशेष के हितों का ध्यान रखकर कानून का निर्माण करती है। उस परिस्थिति में सरकार द्वारा निर्मित कानून आलोचना का विषय बन जाते हैं और समाज में असन्तोष व्याप्त हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करने से वंचित हो जाते हैं। इस विषम परिस्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार जो भी कानून बनाए वह लोकहित का ध्यान रखकर ही बनाए। लोकहित के आधार पर निर्मित कानून समाज में समानता व स्वतन्त्रता की सुरक्षा करते हैं। 5. मौलिक अधिकारों को मान्यता– विभिन्न प्रकार के अधिकारों के उपभोग की सुविधा का होना ही स्वतन्त्रता मानी जाती है, अतएव विद्वानों का मत है कि मौलिक अधिकारों को संवैधानिक मान्यता होनी चाहिए। मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वालों को न्यायालय द्वारा दण्डित किए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि मौलिक अधिकारों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की जाती है तो स्वतन्त्रता की सुरक्षा स्वयं ही हो जाएगी। 6. लोकतन्त्रात्मक शासन- प्रणाली की स्थापना-लोकतन्त्रात्मक शासन- प्रणाली में नागरिकों को भाषण, भ्रमण तथा विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलती है, अतएव लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली की स्थापना करके हम नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकते हैं। 7. निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्यायालये- न्याय नागरिकों की स्वतन्त्रता की सुरक्षा की प्रथम दशा है। यदि नागरिकों को निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्याय मिलने में बाधा आएगी तो वे निराश हो जाएँगे, उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाएगा अतएव व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए यह आवश्यक है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की जाए। 8. स्थानीय स्वशासन की स्थापना- नागरिकों के राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि उसी समय सम्भव है। जबकि नागरिक स्वतन्त्र रूप से शासन के कार्यों में भाग लें और शासन-सम्बन्धी नीतियों से परिचित हों। इस प्रकार की व्यवस्था करने का एकमात्र उपाय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण और स्थानीय स्वशासन की स्थापना करना है। 9. नागरिक चेतना- नागरिक अपनी स्वतन्त्रता समाप्त कर सकते हैं, यदि वे उसके प्रति जागरूक न रहें। शिथिलता व उदासीनता आने पर नागरिक अपनी स्वतन्त्रता समाप्त कर देते हैं इसलिए स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए यह अनिवार्य है कि नागरिक शासन की निरंकुशता के प्रति जागरूक रहें। 10. राजनीतिक दलों को सुदृढ़ संगठन– राजनीतिक दल शासन की नीति के आलोचक होते हैं। यदि सरकार नागरिकों की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करती है तो राजनीतिक दल सरकार के विरुद्ध जन-क्रान्ति कराकर शासन सत्ता को परिवर्तित करते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की का कथन है, “राजनीतिक दल देश में सीजरशाही से हमारी रक्षा करने के सर्वोत्तम साधन हैं।” 11. प्रचार के साधनों की प्रचुरता- स्वतन्त्रता के प्रति नागरिकों को जागरूक बनाए रखने के लिए देश में प्रचार तथा प्रसार के साधनों की प्रचुरता होना आवश्यक है। इनके माध्यम से नागरिकों को राजनीतिक क्षेत्र में जाग्रत रखा जा सकता है। स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष प्रेस के माध्यम से नागरिकों में स्वतन्त्रता के प्रति चेतना अथवा जागरूकता उत्पन्न की जा सकती है। 12. संवैधानिक उपचारों की व्यवस्था– यदि राज्य या कोई व्यक्ति नागरिक के अधिकारों का अतिक्रमण करे तो न्यायालय को हस्तक्षेप करके नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए। इसी को संवैधानिक उपचार भी कहा जाता है। 13. आर्थिक असमानता का अन्त– स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए आर्थिक असमानता का अन्त करके आर्थिक समानता की व्यवस्था करनी चाहिए। 14. शक्ति-पृथक्करण तथा अवरोध और सन्तुलन– स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए कुछ सीमा तक शक्ति-पृथक्करण तथा कुछ सीमा तक अवरोध एवं सन्तुलन के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक है। स्वतन्त्रता को स्थिर एवं सुदृढ़ बनाने के लिए उपर्युक्त साधनों का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में ये व्यवस्थाएँ सम्भव हो सकती हैं क्योंकि इस प्रणाली में वास्तविक सत्ता का केन्द्र जनता ही होती है। कोई भी सरकार जनता की इच्छाओं, भावनाओं तथा आकांक्षाओं की अवहेलना करके अधिक समय तक सत्ता में कायम नहीं रह सकती है। अतः लोकतन्त्रात्मक शासन-प्रणाली में नागरिकों की स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से सुरक्षित रहती है।
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