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वैध चिन्तन’ से क्या तात्पर्य है? वैध चिन्तन के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।यावैध चिन्तन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ बताइए।  

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वैध चिन्तन का आशय

यदि चिन्तन की प्रक्रिया के परिणामतः निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो उसे ‘वैध चिन्तन (Valid Thinking) कहा जाएगा। सामान्यतः चिन्तन का निर्धारित लक्ष्य किसी समस्या-विशेष का समाधान खोजना होता है; अतः सफल या प्रामाणिक चिन्तन वह चिन्तन है, जिसमें समस्या का हल निकल आये। प्रामाणिक चिन्तन, सभी भाँति तटस्थ एवं बाह्य प्रभावों से मुक्त होता है। हमें जानते हैं कि
आत्मगत सुझावों, संवेगों तथा अन्धविश्वासों से युक्त चिन्तने दोषपूर्ण हो जाता है। दोषपूर्ण चिन्तन की वैधता एवं उपयोगिता समाप्त हो जाती है। वैध, प्रामाणिक एवं दोषमुक्त चिन्तन के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं।
चिन्तन की अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ। अच्छे चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ या प्रभावित करने वाली दशाएँ निम्नलिखित हैं

(1) सबल प्रेरणा (Strong Motivation)– चिन्तन की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए प्रेरणा बहुत आवश्यक है। प्रेरणा की अनुपस्थिति में दोषमुक्त एवं व्यवस्थित चिन्तन सम्भव नहीं है। वस्तुतः चिन्तन की शुरुआत किसी समस्या से होती है। यह समस्या चिन्तन के लिए स्वत: ही एक प्रेरणा का कार्य करती है। व्यक्ति का सम्बन्ध समस्या से जितना, गहरा होगा, वह उसके समाधान हेतु उतनी ही गम्भीरता से कार्य करेगा। बाहरी प्रेरणाएँ जितनी अधिक सबल होंगी, चिन्तन भी उतना ही अधिक प्रबल होगा। इस प्रकार, प्रामाणिक चिन्तन के लिए सबल प्रेरणाएँ पर्याप्त रूप से सहायक समझी जाती हैं।

(2) रुचि (Interest)– रुचि, चिन्तन को प्रभावित करने वाली एक मुख्य दशा है। रुचि होने पर व्यक्ति सम्बन्धित समस्या के समाधान हेतु पूर्ण मनोयोग से प्रयास करता है। अपनी आदत के मुताबिक अरोचक विषयों से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु चिन्तन करने के लिए या तो व्यक्ति प्रचेष्ट ही नहीं होगा और यदि अनमने मन से चेष्टा करेगा भी तो उसे पूर्ण नहीं करेगा।

(3) अवधान (Attention)- चिन्तन के पूर्व और चिन्तन की प्रक्रिया के दौरान सम्बन्धित समस्या की ओर व्यक्ति का अवधान (ध्यान) होना चाहिए। समस्या पर अवधान केन्द्रित न होने से चिन्तन करना सम्भव नहीं हो पाता।

(4) बुद्धि (Intelligence)– चिन्तन का बुद्धि से सीधा सम्बन्ध है। चिन्तन एक बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया है; अतः बुद्धि का क्षेत्र या मात्रा चिन्तन में सहायक होती है। बुद्धि से सम्बन्धित तीनों पक्ष-अन्तर्दृष्टि, पूर्वदृष्टि तथा पश्चात् दृष्टि के सम्यक् एवं समन्वित प्रयोग से चिन्तन की सफलता सुनिश्चित होती है। देखने में आया है कि अधिक बुद्धिमान व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सफल चिन्तक बन जाता है।

(5) सतर्कता (Vigilence)- वैध चिन्तन के लिए सतर्कता एक अनुकूल दशा है। चिन्तन के दौरान सतर्कता बरतने से भ्रान्त धारणाओं तथा गलतियों से बचा जा सकता है। इसके अलावा सतर्कता नवीन उपायों तथा विधियों का भी ज्ञान कराती है, जिन्हें आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है।

(6) लचीलापन (Flexibility)– चिन्तन में लचीलापन अनिवार्य है। व्यक्ति की मनोवृत्ति में लचीलापन रहने से चिन्तन में स्वतन्त्रता आती है। रूढ़िगत एवं अन्धविश्वास से युक्त चिन्तन संकुचित एवं सीमित रह जाता है। चिन्तन में देश-काल एवं पात्रानुसार परिवर्तन आने चाहिए। स्पष्टतः यह चिन्तन में लचीलेपन के गुण से ही सम्भव है। |

(7) पर्याप्त समय (Enough Time)– चिन्तन के लिए समय की पाबन्दी लगाना उचित नहीं है। चिन्तन करते समय चिन्तक को यह ज्ञात नहीं रहता कि उसे किसी समस्या पर विचार करने में कितना समय लगेगा। अतः चिन्तन में स्वाभाविकता लाने के लिए समय की सीमा कठोर नहीं होनी चाहिए। चिन्तन के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध रहना चाहिए।

(8) गर्भीकरण (Incubation)– गर्भीकरण अथवा सेने से अण्डे में बच्चा तैयार हो जाता है। जो समयानुसार पूर्ण रूप में आसानी से बाहर आ जाता है। गर्भीकरण का विचार चिन्तन की मानसिक प्रक्रिया के लिए एक अनुकूल दशा है। कभी-कभी लगातार एवं अवधानपूर्ण चिन्तन के बावजूद भी समस्या का समुचित हल नहीं निकल पाता। ऐसी दशा में चिन्तन के साथ जोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए और उसे कुछ समय के लिए स्थगित कर देना चाहिए। इसे मानसिक विश्राम भी कहते हैं। गर्भीकरण की क्रिया में व्यक्ति समस्या से बेखबर अन्य कार्यों में उलझा रहता है। उसका मस्तिष्क समस्या को सेता रहता है। उचित समय पर समस्या का हल स्वतः ही मस्तिष्क में उभर आता है।

चिन्तन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ

जिस प्रकार वैध चिन्तन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जो अच्छे चिन्तन को ऋणात्मक के रूप से प्रभावित करती हैं तथा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इस तरह की परिस्थितियाँ चिन्तन को मैला करती हैं; अत: वैध चिन्तन के लिए इनसे बचाव अनिवार्य है।
चिन्तन एक महत्त्वपूर्ण मानसिक प्रक्रिया है जो न केवल समस्या-समाधान की ओर उन्मुख होती। है अपितु व्यक्ति की अभिवृत्तियों तथा गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखती है। यही कारण है कि प्रारम्भ से मानव को प्रगति और अधोगति, रीति-रिवाज तथा अन्धविश्वास शुद्ध चिन्तन के स्रोत को प्रदूषित करते हैं।
इसके अतिरिक्त यदि व्यक्ति किन्हीं पूर्वाग्रहों से ग्रसित होगा या उसका रवैया किसी वस्तु/व्यक्ति विशेष के लिए पक्षपातपूर्ण होगा तो इसका विपरीत असर चिन्तन पर अवश्य पड़ेगा। भावुक व्यक्तियों का चिन्तन किसी एक दिशा में प्रवाहित हो जाता है, सम्भव है वह भ्रामक या त्रुटिपूर्ण दिशा हो। गलत सुझाव भी चिन्तन को विकासग्रस्त बना देते हैं।
चिन्तन में वस्तुओं की वास्तविक उपस्थिति जरूरी नहीं होती, बल्कि हम उस वस्तु या उद्दीपक का कुछ प्रतीक (Symbols) तथा प्रतिमाएँ (Images) मन में बना लेते हैं और उन्हीं के आधार पर चिन्तन करते हैं। दोषपूर्ण प्रतीक या प्रतिमाएँ दोषपूर्ण चिन्तन को जन्म दे सकती हैं।
चिन्तन की वैधता संप्रत्ययों की वैधता पर भी निर्भर करती है। संप्रत्यय जितने ही सरल तथा स्पष्ट होते हैं, चिन्तन उतना ही सरल होता है। जटिल और विशिष्ट संप्रत्ययों से सम्बन्धित चिन्तन अधिक स्पष्ट नहीं होता है।
स्पष्टतः चिन्तन के उपकरण; यथा—पदार्थ, संकेत, प्रतीक, प्रतिमा तथा संप्रत्यय; अपनी जटिलता, अस्पष्टता या दोषों के कारण वैध चिन्तन के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।



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