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वेबर की आदर्श-प्रारूप की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।या‘आदर्श-प्रारूप’ से क्या अभिप्राय है?

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आदर्श-प्रारूप की अवधारणा मैक्स वेबर के पद्धतिशास्त्र का एक प्रमुख पहलू है। वेबर के समय जर्मनी में यह विचारधारा अत्यंत प्रचलित थी कि सामाजिक घटनाओं पर प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति के अनुसार विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सामाजिक क्षेत्र में व्याख्या और स्पष्टीकरण मूलतः ऐतिहासिक हैं। आदर्श-प्रारूप की अवधारणा इस विचारधारा का खंडन कर एक ऐसी पद्धति प्रदान करती है जो कि वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने में सहायक है।

वेबर के अनुसार तर्कसंगत ढंग से सामाजिक घटनाओं के कार्य-कारण संबंधों को तब तक स्पष्ट नहीं किया जा सकता जब तक कि उन घटनाओं को पहले समानताओं के आधार पर कुछ सैद्धांतिक श्रेणियों में न बाँट लिया जाए। ऐसा करने पर समाजशास्त्री को आदर्श-प्रारूप घटनाएँ मिल जाएँगी। इस दृष्टिकोण से सामाजिक घटनाओं की तार्किक संरचना में बुनियादी पुनर्निर्माण की आवश्यकता होती है जिसे वेबर ने आदर्श-प्रारूप की अवधारणा को विकसित करके किया है। समाजशास्त्रियों को अपनी उपकल्पना का निर्माण करने के लिए ‘आदर्श’ अवधारणाओं को चुनना चाहिए।

वैबर के अनुसार-‘आदर्श-प्रारूप न तो औसत-प्रारूप है और न ही आदर्शात्मक है, बल्कि वास्तविकता के कुछ तत्त्वों के विचारपूर्वक चुनाव तथा सम्मिलन द्वारा निर्मित आदर्शात्मक मापदंड है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है-“आदर्श-प्रारूप से तात्पर्य कुछ वास्तविक तथ्यों के तर्कसंगत आधार पर यथार्थ अवधारणाओं का निर्माण करने से है।” “आदर्श’ शब्द किसी प्रकार के मूल्यांकन से संबंधित नहीं है।

वेबर के द्वारा प्रतिपादित आदर्श-प्रारूप की अवधारणा की निम्नलिखित तीन प्रमुख विशेषताएँ है-
⦁    आदर्श-प्रारूप का निर्माण, कर्ता की क्रिया के इच्छित अर्थ के अनुसार किया जाता है।
⦁    आदर्श-प्रारूप संपूर्णता अथवा सब-कुछ का विश्लेषण नहीं है अपितु सामाजिक क्रिया या घटना के अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्षों का निरूपण है; विशेषतया उन पक्षों का जिन्हें आदर्श-प्रारूप का निर्माण करने वाला विद्वान महत्त्वपूर्ण मानता है।
⦁    वेबर के अनुसार आदर्श-प्रारूप सामाजिक विज्ञानों का अंतिम सत्य नहीं है अपितु आदर्श-प्रारूप को मात्र ठोस ऐतिहासिक समस्याओं के विश्लेषण हेतु साधन या उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।



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